अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ।
अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ। खुद अपनी नज़र से गिरा जा रहा हूँ।।
अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ। खुद अपनी नज़र से गिरा जा रहा हूँ।।
कण-कण में है मूर्ति तुम्हारी, किरण-किरण में हास तुम्हारा
आज पटना के टी.बी. अस्पताल के जिस बिस्तरे पर हिंदी-साहित्य के हमारे महान तपस्वी, बिहार के हिंदी लेखकों की पिछली पुस्त के स्रष्टा, ऋषियों के जीवन की परंपरा के अंतिम प्रतीक, आचार्य शिवपूजन सहाय जी रखे गए हैं
एक योद्धा-सा चला तू, संत बन कर मर गया । अग्नि-ज्वाला-सा उठा तू, फूल होकर झड़ गया ।
बोलो, क्या गाऊँ गीत आज ? कण-कण में जलती जागी हैं छाती कराहती है सब की, इंसान आज का बागी है।
कुछ दिन हुए, इच्छा हुई थी, अपनी आत्मकथा लिखूँ और उसका नाम रख दिया था, बाढ़ का बेटा!