छह ग़ज़लें
जितनी लगती है सुर्ख़ आज इतनी ये तो न थी ज़िदगी ज़ख़्मी थी मगर लहू-लहू तो न थी क्या हुआ उनको क्यों वो कर रहे हैं मुझको सलाम
जितनी लगती है सुर्ख़ आज इतनी ये तो न थी ज़िदगी ज़ख़्मी थी मगर लहू-लहू तो न थी क्या हुआ उनको क्यों वो कर रहे हैं मुझको सलाम
कोई मसअला हल तो हो आज नहीं हाँ कल तो हो जो इंसाफ़ सभी को दे ऐसा राजमहल तो हो तुझमें भटकूँ जीवन भर पहले तू जंगल तो हो
लुटा कर हर ख़ुशी अपनी तू जिसका साथ पाए है कहाँ दौलत ये हरजाई किसी के साथ जाए है दहेजों के लिए जब लौटकर बारात जाए है
फूलों-पत्तों ने मिल-जुल कर क्या-क्या साज सजाए हैं ये क्या जाने इन पेड़ों ने कितने पत्थर खाए हैं
जिस्म से बिछड़ी हवा यानी हवा में मिल गए टूट पुर्जो में जो बेग़ाने हवा में मिल गए
जब जब सम्मुख तम गहराया, मन सदा तुम्हारी शरण गया संघर्षों में, तूफानों में, तुमसे ही मन का मरण गया,