भारत दुर्दशा का चित्रहार

‘मुझे कहते हैं सब रिश्वत लाल मैंने कर डाला सबको हलाल, कि तेरा-मेरा साथ रहेगा। बरसों से पहचाने मुझको जमाना घूस, दस्तूरी, सलामी, नजराना, घूस दिए बिना चले नहीं जाना सारी दुनिया को करता बेहाल, मैं करता हूँ हरदम कमाल

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हवा में लहलहा रही ‘कलगी बाजरे की’

यह कविता अज्ञेय की काव्य यात्रा के पूर्वार्द्ध की कविता है। उस दौर में उन्होंने पूर्ववर्ती काव्य आंदोलनों की रूढ़ और अप्रासंगिक हो चुकी प्रवृत्तियों से विद्रोह किया था और साहित्य की दुनिया में नये,

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हर कदम पर बाज देखिए

है मसीहा रहगुजर मगरबस गिराता गाज देखिए भूख में जनता यहाँ वहाँ ख्वाब यूँ स्वराज देखिए नाच गाना जश्न आजकलमौज में है ताज देखिए

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ख्वाब का बाजार

ख्वाब का बाजार देते हैं कर उसे अंगार देते हैंआदमी जलता उसी में यूँ ताज कर गुलनार देते हैंहै धरम उनका मसीहाई जीस्त कर अखबार देते हैं

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रहगुजर में आग

रहगुजर में आग है अभी तख्त पर एक नाग है अभीहै सिंकदर रहनुमा मगर मुल्क पर वो दाग है अभीहै लुगाई सल्तनत नई मौज करता काग है अभी

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मुल्क में हवाला है

मुल्क में हवाला है आदमी किवाला हैख्वाब का समुंदर है लूटता निवाला हैदर्द अब जमाने में हर कदम रिसाला हैआजकल बहारा यूँ दीखती उजाला हैथामकर मशालों को हर जगह मलाला है

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