यथावत की यात्रा
‘अब यार, झूठ के साथ सभी झूठे तो पड़ते ही जाएँगे ना!’ दूसरे ने उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और कहा–‘चल अब!’
‘अब यार, झूठ के साथ सभी झूठे तो पड़ते ही जाएँगे ना!’ दूसरे ने उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और कहा–‘चल अब!’
‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके। आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’
‘जब तक भव्य घटित होता रहेगा, गरीब कहानी से बाहर नहीं आ पाएगा और जमीर भी। शायद भव्य के धोखे ही जमीर में बदलते जाते हैं।
‘आपके सामने चार ऑप्शंस थे, दो आपने गँवा दिए! चाहे तो आप साढ़े छह लाख ले जा सकती हैं। वर्ना...सारे गरीब परदे के सामने बैठे थे। जेब में दस बीस-पचास रुपये रखे।
सब्ज़ियाँ काटते समय भी वह खोई रहती है किसी और दुनिया में खाने बैठो साथ तो खुल जाती है उसकी स्मृतियों की पिटारी उसका गाँव, खेत-खलिहान सब कुछ सब्ज़ियों की उँगली पकड़े आ जाते हैं स्मृतियों से बाहर निकल कर
जिसकी छुरी की तेज़ धार बिना बटखरे के भी काटती है नपातुला माँस एक दीप जो बुझने के अरसे बाद होता है प्रज्ज्वलित सदियों बाद तेज़तर होती जाती है उसकी लौ!!