फीजी यात्रा @ विश्व हिंदी सम्मेलन

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को प्रबोधते हुए कहा था कि ‘योग: कर्मसु कौशलम् अर्थात कर्म की कुशलता का नाम ही योग है। कर्म ही धर्म है। मैंने अपने चार दिनों के प्रवास में देखा कि वहाँ के प्रत्येक नागरिक ने कर्म की कुशलता को अपने जीवन में अपना लिया है।

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महाकवि ‘नीरज’ संग वह रसवंती शाम

यहाँ नीरज ने अपराध, प्यार सब संस्कृत निष्ठ शब्दावली का प्रयोग किया है और दूसरी ओर आदमी शब्द का उपयोग है, मनुष्य, का नहीं। कविता की संप्रेषणीयता का सबसे सहज स्वरूप आधुनिक हिंदी कविता में नीरज के यहाँ मिलता है।

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भोर गीत

सूरज ने किरण-माल डाली कानों तक फैल गयी लाली क्षितिजों का उड़ गया अँधेरा फैल गया सिंदूरी घेरा गीतों ने पालकी उठाली जाग गईं दूर तक दिशाएँ बाहों-सी खुल गईं हवाएँ

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जंगल में रात

चाँदी की चोंच थके पंखों के बीच दिए पड़कुलिया झील सो गई जंगल में रात हो गई शंखमुखी देह मोड़कर ठिगनी-सी छाँह के तले आवाजें बाँधते हुए चोर पाँव धुँधलके चले

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सावनी उजास

हाथों में फूल ले कपास के स्वर झूले सावनी उजास के पागल-सी चल पड़ी हवाएँ मंद कभी तेज झूल रही दूर तक दिशाएँ यादों की चाँदनी सहेज

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सांध्य गीत

टूट गई धूप की नसैनी तुलसी के तले दिया धर कर एक थकन सो–गई पसर कर दीपक की ज्योति लगी छैनी आँगन में धूप-गंध बोकर बिखरी चौपाइयाँ सँजोकर

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