लोगों से नहीं, माल से है प्यार हो गया

लोगों से नहीं, माल से है प्यार हो गया घर घर न रहा आज है बाज़ार हो गया संवाद था दुनिया की हक़ीक़त के बीच जो लथलथ लहू से आज वो अख़बार हो गया

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पछतावा

‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके। आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’

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जाइएगा नहीं

‘आपके सामने चार ऑप्शंस थे, दो आपने गँवा दिए! चाहे तो आप साढ़े छह लाख ले जा सकती हैं। वर्ना...सारे गरीब परदे के सामने बैठे थे। जेब में दस बीस-पचास रुपये रखे।

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चाबी है सब्ज़ियाँ

सब्ज़ियाँ काटते समय भी वह खोई रहती है किसी और दुनिया में खाने बैठो साथ तो खुल जाती है उसकी स्मृतियों की पिटारी उसका गाँव, खेत-खलिहान सब कुछ सब्ज़ियों की उँगली पकड़े आ जाते हैं स्मृतियों से बाहर निकल कर

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