रहने को ख़ुशी आई थी

(पाँच) रहने को ख़ुशी आई थी मेहमान हो गई दो दिन ही सही मुझ पे मेहरबान हो गई भगवान तो हँसते हैं खुले खेत में, दिल में मंदिर में बंद मूर्ति लो भगवान हो गई

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घबराइए न, आइए यह आपका घर है

घबराइए न, आइए यह आपका घर है मेरे समीप आने में किस बात का डर है मिल करके जिससे पाल लिया भय है आपने उसका मनुष्य लेखनी भर में है, ख़बर है

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सख्त रास्ते हैं मगर चल रही है

सख्त रास्ते हैं मगर चल रही है ज़िंदगी बार-बार गिर रही, सँभल रही है ज़िंदगी हँस रही है फूल अगर हँस रहे हैं राह में कंटकों के बीच भी मचल रही है ज़िंदगी

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लोगों से नहीं, माल से है प्यार हो गया

लोगों से नहीं, माल से है प्यार हो गया घर घर न रहा आज है बाज़ार हो गया संवाद था दुनिया की हक़ीक़त के बीच जो लथलथ लहू से आज वो अख़बार हो गया

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पछतावा

‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके। आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’

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