नई धारा संवाद : व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर से बातचीत

मैंने सोम ठाकुर जी से कहा कि ये तो इन्होंने गलत कर दिया! इतनी ऐसी बात थी कि बताने वाली नहीं थी तो ये इन्होंने क्यों बता दी! फिर उसी यात्रा में...मैं उनका आभारी हूँ

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आस्तित्व खोजती स्त्रियाँ

बिना किसी शिकन बिना किसी उलझन के लगा कर बालों में करंज का तेल निकल पड़ती हैं, अहले-सुबह कंधे पर प्लास्टिक का थैला लटकाए खोजने कचरे के डब्बे में अपना…

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दंभ

अपने अस्तित्व से बेखबर समुद्र के असीम विस्तार में खोती जा रही थी डूबती जा रही थी इस नई अनरीति को जानती थी उसकी प्रीत को भी पहचानती थी फिर भी उस बंधन में बँधना कितना मधुर लगा था

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वसंत की आहट

मधुमालती के झूमते बेलों से आलिंगनबद्ध नागफनी को उखाड़कर रोप देती हूँ अपनेपन के कुछ पौधों को और, निकाल कर ले आती हूँ अपने उस स्वप्न को जिसे पिछले वसंत में सड़क के किनारे महुए के पेड़ के नीचे दबा कर छोड़ आई थी मैं जो आज भी गर्भस्थ शिशु की भाँति साँसें ले रहा है

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अपने अपने यथार्थ

देखते हो खूँटी पर टँगा वह मैला कुरताउसकी बाजू पर लगी हुई कई पैबंदमेरे पायजामे पर पड़ी बेतरतीब सिलवटें झुर्रियों से ग्लोब बने

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शहर में घर बसाना

हवा बदबू, धुआँ, सीलन से भरी है शोर से सहमी समय की बाँसुरी है तिर रहा हर होंठ पर फिल्मी तरानानहीं रिश्तों की गरम-कनकन छुअन है

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