निर्भया बच गई
मैं-कृष्णदेव हक्के-बक्के थे, पर कहीं गहरे संतोष में भी थे। ‘अरुन्धती, आज के शब्दों में ‘निर्भया’ होने से बच गई!’
मैं-कृष्णदेव हक्के-बक्के थे, पर कहीं गहरे संतोष में भी थे। ‘अरुन्धती, आज के शब्दों में ‘निर्भया’ होने से बच गई!’
वास्तव में, हिंदी-उर्दू विवाद घोर रूप से कूपमंडूक प्रकार के मस्तिष्क की देन है’ अवैज्ञानिक, अनप्रैक्टिकल केवल लड़ाई कराने वाली है।
कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई।
अँधेरे से अँधेरे वक्त में भी जिंदा रहते हैं सपने पहले एक आदमी की आँखों में उतरते हैं फिर हजार आँखों में झिलमिला उठते हैं
जब किसी निर्दोष के गले पर कोई सरकार अपने घुटने टिका देती है उसका दम घुटने लगता है मुर्दे पहचान लिए जाते हैं
दूरी इतनी ही रहे कि आँसुओं तक पहुँच सकें हाथ इतनी ज्यादा नहीं कि धड़कनें भी न सुनायी पड़ें इतनी तो बिल्कुल ही नहीं कि