सामने

आज भी सुबह आठ बजे से राहगीरों को ताकते हुए ग्यारह बजे चले थे। मजदूरी को तलाशती उसकी आँखों में मजबूरी पानी बनकर उभर आई थी।

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तट के बंधन

अनीला को जब से उर्मि का पत्र मिला तब से उसके अंदर का अंतर्दाह निरंतर सुलगता रहा है। जब वह समझ रही थी कि एक जीवन का अंत हो चुका तभी उसमें सोई पड़ी प्राणों की चिनगारी सुलगने लगी।

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मुझे याद है (पाँचवी कड़ी)

उस दिन मेरी ममेरी बहन की बिदागरी थी। आँगन में, दरवाज़े पर धूम मची हुई थी। जिनके घर में बेटियाँ ही बेटियाँ हों, उनके घर में बेटियों के आदर-सम्मान का क्या कहना ?

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आम

संस्कृत के एक कवि ने आमवृक्ष को संबोधित कर के कहा है कि हे रसाल ! न तो कोंहड़े के फल के समान तुम्हारे फल होते हैं, न तो बड़-पीपल की तरह तुम्हारी ऊँचाई होती है

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