अरुणाचल का हिंदी मयूर रमण शांडिल्य
आज, रमण शांडिल्य की किसी हिंदी वाले को कोई परवाह नहीं, क्यों होगी? यह तो मृत्यु-पूजक देश बन कर रह गया है...!
आज, रमण शांडिल्य की किसी हिंदी वाले को कोई परवाह नहीं, क्यों होगी? यह तो मृत्यु-पूजक देश बन कर रह गया है...!
हम आम के दीवाने थे और आम के बगीचे भी हमारे आशिक। दुपहर में घर सुनसान और अमराई हमारे अलबेले खेलों से गुलजार हुआ करती थीं।
इतनी चीरफाड़ अनुभूति की मन के खोल को भेदकर शरीर के अंदर से धरती तक शल्यक्रिया शरीर को चीरकर शल्यक्रिया अतींद्रिय फूल नहीं खिलते क्या!
अंकिया भाओना का विदूषक हरीतिका वन से आकर हमारे मानस में बसा पाँचवीं या छठी शताब्दी का शैशव की धुँधली अववाहिका में चेहरे पर रंग पोते बहुरूपिये उनकी उछलकूद, चीत्कार सीटीहास्य मधुर उलझन सपने के मंच पर चढ़ते हुए छोटे बड़े अवयव के
घने जंगल के बाघ और मन के कोने में बसे हुए बाघ की समता, दूरातीतआश्चर्यजनक रूप से बढ़ते हैं लहू में निरूसार बने हुए बाघ
धूल की इस प्रात्यहिकता में विभिन्न आयतन के हेमलेट के साथ हमारा दृष्टि विनिमय होता है बंधु हेमलेट, संतान हेमलेट जीवन नाटक का रसज्ञ समालोचक समाधि खोदने वाले के साथ भी उसका कथोपकथन