प्रेम माधुरी

यह संग में लागियै डोलैं सदा, बिन देखे न धीरज धानती हैं छिन्हू जो वियोग परै ‘हरिचंद्र’, तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं बरुनी में धिरैं न झपैं उझपैं, पल में न समाइबो जानती हैं प्रिय पियारे तिहारे निहारे बिना, अँखिया दुखिया नहिं मानती हैं।

और जानेप्रेम माधुरी

कितने अकेले

आज से पहले हम नहीं थे कभी इतने अकेले जंगलों और कंदराओं में भी नहीं वहाँ भी हम साथ-साथ रहते थे करते थे साथ-साथ शिकार साथ-साथ झेलते थे शीत और धूप की मार यह ठीक है कि तब हमारा नहीं था कोई

और जानेकितने अकेले

थोड़ा और रुक जाते

जब तुम किसी काम को टालने के लिए हमेशा कहते थे–‘थोड़ा-सा और रुक जाएँ?’ याद करो, सालों पुरानी यही लाइन तकियाकलाम बनती गई।’

और जानेथोड़ा और रुक जाते