साँप
पेट की भूख। लत्ता-कपड़ा की भूख। छत-छाया की भूख। इनके बाद बड़ाई की भूख हुआ करती है। लखीनाथ सपेरा ने हाथ से पीतल का कड़ा निकाला। कानों में पहने कुंडल निकाले। बूड़ा रेत और घास की जड़ से रगड़-रगड़, मल-मल खूब धोए। चमक सोना को मात देने लगी।
पेट की भूख। लत्ता-कपड़ा की भूख। छत-छाया की भूख। इनके बाद बड़ाई की भूख हुआ करती है। लखीनाथ सपेरा ने हाथ से पीतल का कड़ा निकाला। कानों में पहने कुंडल निकाले। बूड़ा रेत और घास की जड़ से रगड़-रगड़, मल-मल खूब धोए। चमक सोना को मात देने लगी।
देउस्कर का कहना है कि–अँग्रेज कहते हैं, हम तुमलोग को सभ्यता सिखा रहे हैं। हम भी समझते हैं, ‘अँग्रेजों के सहवास से हम सभ्य हो रहे हैं।’ इस पहेली की मीमांसा करते समय सर टॉमस मनरो ने कहा है–भारतवासियों को सभ्य बनाने की बात का मतलब ही मैं अच्छी तरह समझ नहीं सका हूँ।
चाँद से ख्वाब पाकर मगर आदमी है भटकने लगाजिंदगी तिश्नगी, भूख है यूँ समुंदर दहकने लगाहमसफर बन अजब राहबर तीरगी में सहकने लगा
दुश्मनों की अदा दोस्ती रोज उनकी ख़बर रखनाप्यार कर बंदगी दिलकश सिर्फ इसका असर रखनाखुशनुमा गरफिजा मकसद तो विहँसता शजर रखनाहै उजाला हसीं धड़कन हमसफर तू सहर रखना
हमेशा ख्वाब पाक मुनासिर है आदमीखुदा की यूँ इनायत मुनाजिर है आदमीनया नगमा हमक़दम मुआसिर है आदमी
कौन कहता है अजब दर्द है यारा अशआर है जिंदगीमहफिलों में विहँसती सदा आज उजियार है जिंदगीहर कदम हमनशीं है बनी प्यार की धार है जिंदगी