खुशियों की सौदागिरी

लेकिन अचानक की मेरी मसखरी मुझे भारी पड़ी। मेधा ज्यादा गुस्से या ज्यादा तिलमिलाहट से हुमस कर रो पड़ी। मैं अकबकाया सा उसे मनाने बढ़ा तो उसने झटक दिया। मैंने दुबारा सॉरी कहा और कबर्ड से अपना वॉलेट निकाल उसकी तरफ डालते हुए कहा–आज से इसे तुम्हीं रखो–तुम इसकी मालकिन–खुश? ‘वह रोते-रोते वॉलेट फेंक कर चीखी–‘मुझे खाली वॉलेट्स रखने का शौक नहीं’– –‘अब तुम्हारे लिए चोरी के नोटों से भरा बटुआ तो मैं लाने से रहा’– ‘तुम्हारा मतलब, निलय बख्शी और विशाल घाटे चोर हैं...एक तुम्हीं जमाने में।’

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अगर मैं खोया बहुत कुछ तो

अगर मैं खोया बहुत कुछ तो बहुत पाया भी कभी-कभी तो मिला मूल का सवाया भीडुबो गया जो बचाने के बहाने मुझको बहादुरी का उसी ने ख़िताब पाया भीज़मीर बेचकर कश्कोल1 का सौदा न किया इसी फ़कीरी ने ख़ुद्दार यूँ बनाया भी

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यादों के सफर में मलेशिया ड्रीमलैंड

जेटिंग में हमारा दो दिन रुकने का प्रोग्राम था, क्योंकि मैं यहाँ की स्वर्णिम स्मृतियों को अपने मानस पटल पर भलीभाँति सँजो लेना चाहती थी, शाम के समय हम दो ग्रुपों में विभाजित होकर टहलने निकले क्योंकि वहाँ की भव्यता देखकर हमें अंदाजा हो गया था कि इस प्रकार हम सभी अपनी-अपनी रुचियों के अनुसार घूम सकते हैं। वह हमारी कल्पनाओं से भी अधिक बड़ा तथा भव्य था। यहाँ आने पर जितनी मुझे खुशी हो रही थी उतना ही मेरा भावुक मन कुछ सोचने को विवश था।

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बादल राग

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन-घोर राग अमर, अंबर में भर निज रोर!झर-झर निर्झर, गिरि, सर में घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में सरित, तड़ित गति, चकित पवन में मन में, विजन गहन, कानन में आनन-फानन में, रव घोर कठोर– राग-अमर, अंबर में भर निज रोर!

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राधाकृष्ण को हम क्यों भूलें

कहानी एक गरीब लड़के के आत्मवृत्त के रूप में है, जिसमें वह कहता है : ‘आजकल तो मैं ही घर में कमाने वाला हूँ। दिन के समय लड़कों के साथ कोसी में मछलियाँ मारता हूँ। शाम होते ही किसी की फुलवारी में घुसकर कुछ फल और सब्जी का जुगाड़ करता हूँ। इसी से घर चलता है। उस दिन भूखन साहू के यहाँ एक बैलगाड़ी खड़ी थी। उसमें चावल के बोरे लदे थे। अपने साथियों के साथ मिलकर हमने एक पूरा बोरा उड़ा लिया और गाड़ीवान को खबर तक न हुई।

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जीवन और साहित्य में वंचितों की आवाज

अपने राजनीतिक जीवन में ऐसी सैकड़ों जनसभाओं में उन्हें बेशुमार ढंग से भाषण करते हुए लोगों ने सुना था। कई बार ऐसे भी वाकिये हुए हैं, जब उन्हें उन्नाव और लखनऊ की चुनाव सभाओं में सिर्फ मंच पर बैठे हुए लोग ही सुन रहे होते थे, पर मुद्रा जी पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे अपनी चिरपरिचित मुद्राओं के साथ जनजागरण अभियान में लगे रहे।

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