सहमे सहमे आप हैं
मस्जिदें खामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैं कुछ डरे से वो भी हैं, और सहमे सहमे आप हैं वक्त है त्यौहार का, गलियाँ मगर सुनसान हैं धर्म और जाति के झगड़े बन गए अब पाप हैं
मस्जिदें खामोश हैं, मंदिर सभी चुपचाप हैं कुछ डरे से वो भी हैं, और सहमे सहमे आप हैं वक्त है त्यौहार का, गलियाँ मगर सुनसान हैं धर्म और जाति के झगड़े बन गए अब पाप हैं
तेजेंद्र शर्मा हिंदी के एक ऐसे प्रवासी कहानीकार हैं जो दो देशों के बीच वैश्विक स्तर पर आ रहे बदलावों के बीच जीवन की ऊष्मा, संवेदना और मानवीय रिश्तों की अंतरतहों तक दृष्टि डालते हुए उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कथा के रूप में सामने लाते हैं। तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में सामाजिक विषयों की विविधता है। उनकी कहानियों के केंद्र में परिवार है खासकर मध्यमवर्गीय परिवार। पारिवारिक संबंधों का, मानवीय इच्छाओं का आख्यान करती इन कहानियों में भाषा सहज और प्रवाहमयी है।
तेजेंद्र की कहानियों में सभ्यताओं का द्वंद्व है, समाज का वह विद्रूप चेहरा है जिसे पूँजीवाद रह-रहकर बेनकाब करता चलता है। तेजेंद्र जी की भाषा में एक तरह का ‘इन्हेरेंट विट’ है जो कहानियों में एक खास किस्म की रवानी पैदा करता है और हिंदी उर्दू की साझी परंपरा की किस्सागोई की विरासत की याद दिलाता है। तेजेंद्र शर्मा की रेंज बहुत बड़ी है। उनके समकालीन कई कथाकार एक ही कहानी को बार बार लिखकर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय होने का दंभ भरते रहे जबकि यह लेखक समाज की अलग अलग विडंबनाओं को अपनी कथाओं के माध्यम से समझते रहे।
प्रस्तुत कहानी में मृत्यु दो रूपों में पुरजोर तरह से उपस्थित है मुझे लगता है तेजेंद्र शर्मा की अन्य सभी कहानियों की तुलना में मृत्यु पर जितना विस्तृत चिंतन लेखक ने ‘हथेलियों में कंपन’ में किया है अन्यत्र दुर्लभ है। मृत्यु का दूसरा सिरा मौसा नरेन के जवान बेटे अमर की मृत्यु से जुड़ा है। लेखक ने पूरी कहानी में व्यंग्यात्मक शैली में मृत्यु को अनेक संदर्भों में व्याख्यायित किया है। मृत्यु यदि एक बाजार है, उसकी मंडी भी लगती है, वह एक व्यवसाय है, तो मृत्यु एक हस्ताक्षर भी है। कभी-कभी अपने प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके अपने क्रम को उलटने वाला हस्ताक्षर भी मृत्यु ही है। इस तरह मृत्यु अंत नहीं आरंभ है जीवन का।
सृजन कभी सीखा नहीं जा सकता। उसे केवल माँझा जा सकता है। सृजन की आवाज अंतर्मन से ही उठती है–एक विचार के तौर पर। इसलिए मैं सृजन के लिये विचार को महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, विचारधारा को नहीं। राजनीतिक विचारधारा के दबाव में पैंफलेट तो लिखा जा सकता है साहित्य नहीं। जब जब हमारी कलम आम आदमी के कष्ट और दुःख के लिये उठेगी वो स्वयं ही बेहतरीन साहित्य की रचना करेगी।
किसी भी कवि के लिए युग के दबावों को अनदेखा करना संभव नहीं होता। उसकी चिंता के केंद्र में समय, समाज, सत्ता, जीवन-मूल्य होते हैं। वैसे भी कविता के सरोकार मूलतः मनुष्य के सरोकार ही होते हैं और कवि को अपने समय की विपरीत परिस्थितियों का अहसास रहता है। हालाँकि यह बात उन कवियों या रचनाकारों पर लागू नहीं होती जो जीवन की सामाजिकता को नहीं, व्यक्तिगत नजरिये में यकीन करते हैं।