कितने रूप हैं तुम्हारे

जल जंगल जमीन हमारा रक्षक हैं हम जंगल पहाड़ों का हमारे अंदर जंगल उजड़ने का दर्द चीख-चीख कर बयाँ कर रही है तुम्हारी दरिंदगी के किस्से

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सांप्रदायिक समस्या और प्रेमचंद

प्रेमचंद ने पहली बार लक्ष्य किया कि सांप्रदायिकता किस तरह से संस्कृति का मुखौटा लगाकर सामने आती है। उसे अपने असली स्वरूप में सामने आने में शर्म लगती है इसलिए वह हमेशा संस्कृति की दुहाई देती है।

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ओम शांति

शान से छिपी बैठी थी वह भूख को पछाड़ते एक रोटी के टुकड़े में, उसे निहारती आँखों में उमड़ते उम्मीद के सागर में!मैंने बढ़ाए कदम बहुत हौले, करने को धप्पा, वह दौड़ पड़ी चंचल बच्ची-सी मुग्ध हँसती, देती चुनौती।

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