ऐसा न हुआ तो

ऐसा न हुआ तो कहीं वैसा न हुआ तो सोचा किए हैं हम वही सोचा न हुआ तोकश्ती को सर पे लेके चला जा तो रहा हूँ रस्ते में तेरे घर की जो दरिया न हुआ तो

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सहज भाषा में कठोर यथार्थ की गजलें

विजय कुमार स्वर्णकार एक ऐसे गजलकार हैं जिन्होंने गजल के रूप रंग को बिगाड़े बिना अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों को अपनी गजलों के साथ जोड़ा है।

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