धरती से अंबर तक

धरती से अंबर तक ये हालात नहीं मौसम पर कब्जा कर ले औकात नहींमुर्दा बनकर जिंदा तो रह लेते हम जिंदा दिखना सबके बस की बात नहींहूनर, हिम्मत, मिहनत, खून-पसीने की मजदूरी लेते हैं हम, खैरात नहीं

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रेणु की कहानियों में द्वंद्व

ऐसा भारतवर्ष हमने चाहा था क्या? ऐसा लगता है, कहीं पतवार खो गई है। ...यह भी कोई प्रजातंत्र है? कलमबंद, जुबान बंद। पर आँखें खुलीं।

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चाहे कुछ भी करो

चाहे कुछ भी करो, नहीं आती शर्म इनसान को नहीं आतीरात आधी गुजर चुकी लेकिन मैं बुलाता हूँ, वो नहीं आतीमुझपे दीवानगी का है इल्जाम नींद तुमको भी तो नहीं आतीदिल ये जाता है, लौट आता है जां चली जाए जो, नहीं आती

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कहीं खोया हूँ मैं

कहीं खोया हूँ मैं, तू गुम कहीं है ये मंजर आज भी कितना हसीं हैमुहब्बत आपसे करने की खातिर जरूरत आपकी मुझको नहीं हैनिकल कर आपकी बाहों से पाया

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जागती आँखों में कुछ सपने

जागती आँखों में कुछ सपने लिए आ जाइए हम जलाएँगे उम्मीदों के दीये, आ जाइएसीख लीजे मुश्किलों में खिलखिलाने का हुनर लब पे गम की दास्ताँ मत लाइए, आ जाइएगड्डियों में ताश की हर दर्दो-गम को फेंटकर ढूँढ़ लेंगे सर्किलों के जाविये, आ जाइए

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भले आय नहीं

भले आए नहीं तुमको किसी अंजाम की खुशबू फिजा में खुद ही फैलेगी तुम्हारे काम की खुशबूतुम्हीं माने नहीं और चल पड़े ऊँची दुकानों में मुझे तो आ रही थी खूब ऊँचे दाम की खुशबू

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