लगाती हैं किसानी दाँव

फकत अरमान के दानें वो बोते नर्म माँटी में कभी पुरबा कभी पछुवा, गई ललकार ये मौसमनिकल कर झाँकता है बीज का नवजात सा कल्ला उसी के साथ सौ दुश्मन लिए अवतार ये मौसमहथेली पर टहलती खेत की हँसमुख नई खुशियाँ मगर लेकर कोई भाग झपट्टामार ये मौसम

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दादा का लगाया नींबू पेड़

दुख की घड़ी में एक टुकड़ा साथ क्या माँगा इस नींबू माँगकर बीमार दादी के लिए पड़ोसी नकछेदी साव को लगा था कि दादा ने जान ही माँग ली उसकी जबकि नकछेदी के साँवरे बदन पर लकदक साफ शफाक धोती कुर्ता जो शोभायमान देख रहे हैं आप उसकी बरबस आँख खींचती सफाई दादा के कारीगर हाथों की करामात ही तो है।

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इस कदर कुछ जख़्म

नींद! चादर ओढ़कर खुद सो गई उफ्फ्! खुमारी से लदा चहरा हुआथा मुसीबत का ख़जाना सामने आँख चौंध कान भी बहरा हुआरोज मिलना था जिसे चौपाल पर वो कबीला में दिखा ठहरा हुआ

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ईश्वर बनाम मनुष्यता

ईश्वर को जो लोग कब्जा रहे होते हैं वे दरअसल उसकी सत्ता की इयत्ता को बखूबी जान-समझ रहे होते हैं ईश्वरी सत्ता की ओट में जनसत्ता के घोटक की लगाम मजबूती से थाम रहे होते हैं

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पाल भसीन का रचना-संसार

‘शरद जुन्हाई बिछ गई, अन्हियारे के देश, तेरे चरणों का हुआ, जब-जब यहाँ प्रवेश, कर हस्ताक्षर धूप के, खिला गुलाबी रूप चले किरण दल पाटने, अंधकार के कूप।’

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खल साहित्यिकों का छलवृत्तांत

अपने नवसृजित सम्मान के कुछ शुरुआती अंकों को उन्होंने उन पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों पर वारा जो उनकी घासलेटी रचनाओं को घास तक नहीं डालते थे फिर तो उनकी और उनकी थैली के चट्टों-बट्टों की कूड़ा रचनाएँ भी हाथोंहाथ ली जाने लगीं यकायक

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