एक पेड़ की तरह
वैसे भी क्या रखा है अब इन घीसी-पीटी पुरानी बातों की बतकही मेंहाँ इतना भर जरूर कह सकता हूँ एक लंबे अंतराल के बाद तुमसे अलग रहते हुए घर से काम पर जाने और काम से घर लौटने के रास्ते में एक पेड़ की तरह थी तुम मेरे लिए
वैसे भी क्या रखा है अब इन घीसी-पीटी पुरानी बातों की बतकही मेंहाँ इतना भर जरूर कह सकता हूँ एक लंबे अंतराल के बाद तुमसे अलग रहते हुए घर से काम पर जाने और काम से घर लौटने के रास्ते में एक पेड़ की तरह थी तुम मेरे लिए
क्या हुई खामोशियाँ कि झर गई पत्तियाँ सारे दरख्तों की, मेरी नजर में यूँ कैसे इसके पतझर हो गया!धूप थी खिली चटक कोई साया पसर गया, मेरे वजूद में आकर आहिस्ता-से कोई फूल खिल गया!
शरीर और मन पर अंकित अनाम यातनाओं के घाव कहाँ सूख पा रहे थे? उस पर बस, समय की परत चढ़ गई थी। मैं नार्मल नहीं थी, लेकिन ऊपरी तौर पर दूसरों को जरूर लगती थी। बड़े भाई से ज्यादा अपराधिनी तो, जन्मदात्री माँ ही प्रतीत होती थी, जिसकी उपस्थिति में मेरा कौमार्य लूटा गया। इस अपराध के लिए मेरा पक्ष लेकर भाई का मुँह नोंच सकती थी! काश...मेरे अंदर सुलगते, कुलबुलाते, अनबुझे सवालों के बीच दुर्भाग्य ने एक और पटखनी दे दी। रिश्वतखोरी के मामले में पिता जी दफ्तर में रंगे हाथ पकड़े गए तथा तत्काल नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए। अपने अपराध का प्रायश्चित करने के बजाय अक्सर शराब पीकर घर आते। नशे की उत्तेजना में माँ पर, वहशियों की तरह हाथ-पैर चलाते। आखिर पुरुष हैं ना! हर हालत में स्त्री को ही प्रताड़ित किया जाता है तथा अनाम यातनाओं के कुंड में, झोंक दिया जाता है।
समकालीन साहित्य के सामने संवेदनहीन यथार्थ की चुनौतियाँ कुछ विशेष रूप से प्रकट हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण है कथ्य की गतिहीनता। एक दृष्टि से अपरिपक्व शब्द, लय और छंद का लोप। आधुनिक समय में हमारा यह साहित्य हमें सीमित दायरे में सोचने के लिए विवश करता है। लेकिन अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लें हमें अपनी ओर आकर्षित कर पढ़ा ले जाती हैं। इनकी ग़ज़लों के कथ्य समकालीन तो हैं ही; छंद, लय और शब्दों की कसावट पाठक के व्यक्तित्व के अनुरूप उनके
सच को यूँ मजबूर किया जाता है झूठ-बयानी पर माला-फूल गले लटके हैं पीछे सटी दोनाली हैदौलत शोहरत बंगला-गाड़ी के पीछे सब भाग रहे फ़सल जिस्म की हरी भरी है ज़हनी रक़बा ख़ाली हैसच्चाई का जुनूँ उतरते ही हम माला-माल हुए हर सूँ यही हवा है रिश्वत हर ताले की ताली है
जब-जब मेरी फटेहाली फटे जूते में ढुकी कील-सी पाँव में चुभती थी