समझ लेते हँसी का राज़

यहाँ क़ीमत हर इक शय की अदा करनी ही पड़ती है ये अच्छा है कि एहसाँ दूर तक ढोना नहीं होतावो अपनी राहों में ख़ुद ही बिछा लेता है काँटे भी हमें दुश्मन की ख़ातिर ख़ार भी बोना नहीं होताहमारे खूँ-पसीने से ही फसलें लहलहाती हैं यहाँ जादू नहीं चलता यहाँ टोना नहीं होतापरिंदों के बसेरों में न दाना है न पानी है ज़मा करते नहीं हैं जो उन्हें खोना नहीं होता

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शब्द-शब्द रचता है!

ढहता है कगार मेरे भीतर जब मैं खिलता हूँ! शब्द-शब्द रचता है जीवन जब मैं लिखता हूँ!प्रभंजन, हवाएँ बहती हैं मेरे भीतर, जब मैं लिखता हूँ!

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घटा छा रही है

कभी मोरनी, शेरनी सी छोटा गजब ढा रही है चलो गाँव मेंकई साल मौसम रूलाया तो क्या अभी भा रही है चलो गाँव मेंनहीं और बंधक रहेगी हँसी चली साथ देखो, चलो गाँव में

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एक पेड़ की तरह

वैसे भी क्या रखा है अब इन घीसी-पीटी पुरानी बातों की बतकही मेंहाँ इतना भर जरूर कह सकता हूँ एक लंबे अंतराल के बाद तुमसे अलग रहते हुए घर से काम पर जाने और काम से घर लौटने के रास्ते में एक पेड़ की तरह थी तुम मेरे लिए

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सैलाब

क्या हुई खामोशियाँ कि झर गई पत्तियाँ सारे दरख्तों की, मेरी नजर में यूँ कैसे इसके पतझर हो गया!धूप थी खिली चटक कोई साया पसर गया, मेरे वजूद में आकर आहिस्ता-से कोई फूल खिल गया!

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सैरंध्री अब नहीं हारेगी

शरीर और मन पर अंकित अनाम यातनाओं के घाव कहाँ सूख पा रहे थे? उस पर बस, समय की परत चढ़ गई थी। मैं नार्मल नहीं थी, लेकिन ऊपरी तौर पर दूसरों को जरूर लगती थी। बड़े भाई से ज्यादा अपराधिनी तो, जन्मदात्री माँ ही प्रतीत होती थी, जिसकी उपस्थिति में मेरा कौमार्य लूटा गया। इस अपराध के लिए मेरा पक्ष लेकर भाई का मुँह नोंच सकती थी! काश...मेरे अंदर सुलगते, कुलबुलाते, अनबुझे सवालों के बीच दुर्भाग्य ने एक और पटखनी दे दी। रिश्वतखोरी के मामले में पिता जी दफ्तर में रंगे हाथ पकड़े गए तथा तत्काल नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए। अपने अपराध का प्रायश्चित करने के बजाय अक्सर शराब पीकर घर आते। नशे की उत्तेजना में माँ पर, वहशियों की तरह हाथ-पैर चलाते। आखिर पुरुष हैं ना! हर हालत में स्त्री को ही प्रताड़ित किया जाता है तथा अनाम यातनाओं के कुंड में, झोंक दिया जाता है।

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