व्यंग्यालोचन के द्वार पर नई दस्तक

राष्ट्रपिता गाँधी जी ने असहमति की अभिव्यक्ति को रोकना एक स्वस्थ समाज के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण बताया था। प्रखर आलोचक एवं व्यंग्यालोचन के क्षेत्र में कई दशकों से एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में चर्चित डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी की नवीनतम कृति ‘व्यंग्यालोचन के पार-द्वार’ में भी किसी सीमा तक असहमति की अभिव्यक्ति को ही व्यंग्य की अंदरूनी शक्ति घोषित किया गया है। इसलिए पुस्तक के प्रथम अध्याय में कहा गया है–‘भ्रष्टाचार का धनुष किसी से उठ नहीं रहा है, प्रहार की जयमाला निष्फल हो रही है। नारों की नदियाँ बनी हैं, वादों के नाव चल रहे हैं, अफवाहों की बयार बह रही है, अपराध की शीतलता सारे पर्यावरण को सुधार रही है। मानवता और आदर्श के सारे आचरण शब्दकोश में सजे हुए हैं।

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स्त्री का अपना स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा बंधन है

पद्मश्री उषाकिरण खान का लंबे समय तक बिहार के साहित्यिक क्षितिज पर स्त्री रचनाकार के तौर पर एकाधिपत्य रहा है। उनकी पहली कहानी का प्रकाशन सन् 1978 में हुआ। तब से अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें आठ कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास हैं। मिथिला की धरती इनकी कहानियों का प्राण-तत्त्व है। मिथिला के संस्कार से इनका व्यक्तित्व अभिसिंचित रहा है। उषा जी की कहानियाँ अपनी सहजता और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती हैं। आज के स्त्री विमर्श के ढाँचे में उनकी कहानियाँ भले ही फिट न बैठती हों पर अपने इसी भिन्न तेवर के कारण उनकी कहानियाँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं। उषाकिरण खान की रचनाएँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं इस रूप में कि यहाँ स्त्री, स्त्री के रूप में नहीं, व्यक्ति के रूप में उपस्थित है। उनकी रचनाओं को स्त्री विमर्श के सीमित खाँचे में नहीं रखा जा सकता, पर वे स्त्री हैं और इसलिए उनकी रचनाओं की मुख्य पात्र के रूप में स्त्री आती रही है। यहाँ जो स्त्री है वह आँसू बहाती या नारे लगाती स्त्री नहीं है, पर आप उसे नकार नहीं सकते। वह वहाँ है अपने होने के एहसास से भरी-पूरी, अपनी अस्मिता के प्रति सजग पर हवा-पानी की तरह अवश्यंभावी और स्वाभाविक।

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टूटा व्यक्तित्व

कौन था वह? कौन? यह एक ऐसा प्रश्न था जिससे उसके कान के परदे फट गए इस प्रश्न की प्रतिध्वनियों से वह भयभीत हो गया पागल सा हो गया

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धूप, धूल और धक्के

चौरासी बरस का शिंगारा सिंह मैली-सी सफेद दाढ़ी, मैले-से सफेद कुर्ते-चादर और मसली-सी सफेद पगड़ी में बहुत पहले सफेदी किए हुए किसी पुराने ‘कोठे’ जैसा लगता है। गाँव से बाहर दो या शायद तीन जामुन और टाहली के पेड़ों के नीचे, एक पुराना नल के और शीरू की चाय-पकौड़ियों वाली ‘हट्टी’ से मिलकर बने इस तथाकथित ‘बस-अड्डे’ पर कभी बैठे...कभी खड़े...कभी टहलते हुए किसी ठीक-ठाक सी बस का इंतजार करते...उसे चार-पाँच घंटे से भी ज्यादा हो गए हैं।

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हमारे बीच का अभिमानी

उसके हाथ में तलवार या हथियार या कंधे पर जाल नहीं होता था उसे गेहूँ से था प्यार और दीवारों से महासागरों से भी इसलिए कि उसमें फल आएँ उसमें द्वार खुलें!

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नाम बड़े और दर्शन छोटे

सभापुर नगर भी आखिर बाजारवाद की लपेट में आ ही गया। बाजारवाद से जिसका जो नफा-नुकसान हुआ वह तो हुआ ही, सबसे अधिक क्षति हुई मुख्य पथ पर ‘होटल सर्वश्रेष्ठ’ और उसके ठीक बगल से लगे जय भवानी पान भंडार की।

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