जनवादी सरोकार की मुलायम ग़ज़लें

समकालीन साहित्य के सामने संवेदनहीन यथार्थ की चुनौतियाँ कुछ विशेष रूप से प्रकट हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण है कथ्य की गतिहीनता। एक दृष्टि से अपरिपक्व शब्द, लय और छंद का लोप। आधुनिक समय में हमारा यह साहित्य हमें सीमित दायरे में सोचने के लिए विवश करता है। लेकिन अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लें हमें अपनी ओर आकर्षित कर पढ़ा ले जाती हैं। इनकी ग़ज़लों के कथ्य समकालीन तो हैं ही; छंद, लय और शब्दों की कसावट पाठक के व्यक्तित्व के अनुरूप उनके

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जनता का हक़ मिले कहाँ से

सच को यूँ मजबूर किया जाता है झूठ-बयानी पर माला-फूल गले लटके हैं पीछे सटी दोनाली हैदौलत शोहरत बंगला-गाड़ी के पीछे सब भाग रहे फ़सल जिस्म की हरी भरी है ज़हनी रक़बा ख़ाली हैसच्चाई का जुनूँ उतरते ही हम माला-माल हुए हर सूँ यही हवा है रिश्वत हर ताले की ताली है

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अर्थ

एक अच्छा ख़ासा पत्थर लेकर अपने सिर को चूर-चूर कर दे किंतु फिर उसने तुरंत... चेहरे पर से पंजे हटा लिए और घबरा कर अगल-बगल देखा किसी को न देखता पाकर उसे अच्छा लगा

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कंकाल और चाँद

डरावनी अँधियारी में, यह सुंदर चाँद कहाँ से उतरा मेरे भीतर के आकाश में! डरावना कंकाल और सुंदर चाँद चलते हैं दोनों साथ-साथ जीवन में क्या!

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व्याप्त

उसका शरीर अवश्य भरा पूरा है फलों से लदी झुकी डाली के समान पर... किसी का न बोलना ही उसके मस्तिष्क में बदबू जैसा सारे वातावरण में व्याप्त हो गया है

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