वह कौन थी

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और...दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे...और यादों को ढोने का जज्बा...? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो...पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।

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ईश्वर बनाम मनुष्यता

बुद्ध महावीर जैसे अकुंठ मनुष्यता के धनी महापुरुषों के अनन्य अनुपमेय कर्मों को ईश्वरीय का नाम दे ईश्वर के नाम पर महिमामंडित कर वस्तुतः ईश-रचयिताओं ने इन्हें ओछा अनअनुकरणीय बनाने की ही की है सफल कोशिश और सामान्यजन की समझ को जाँचा-परखा है

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समझने के लिए लहजे

समझने के लिए लहजे बहुत हैं जुबान से क्या कहूँ किस्से बहुत हैंहवा के साथ मैं जाऊँ कहाँ तक मेरे होने के भी चर्चे बहुत हैंनहीं जो आँधियों से खौफ खाते चिरागों की तरह जलते बहुत हैं

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खल साहित्यिकों का छलवृत्तांत

अपने गिरोह के मुट्ठी भर खल साहित्यिकों के साथ मिल बैठ कर खड़ा किया उन्होंने किसी कद्दावर कवि के नाम पर एक ‘सम्मान’ और वे सम्मान-पुरस्कर्ता बन कर तन गए इस तिकड़म में महज कुछ सौ रुपयों में अपने लिए पूर्व में खरीदे गए दिवंगत साहित्यकारों के नाम के कुछ क्षुद्र सम्मानों का नजीर उनके काम आया

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कबीर और नागार्जुन की रचनाओं में व्यंग्य

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कबीर और नागार्जुन दोनों हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने अपने रचनाशीलता के विविध आयाम द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शोषण पर जबरदस्त प्रहार किया है। समतामूलक समाज की स्थापना तथा व्यंग्य की तीखी मार जैसी समानता के गुणों के कारण ही कबीर और नागार्जुन के अध्ययन को एक साथ प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार–‘हिंदी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पहले आलोचक हैं, जिन्होंने कबीर के मर्म को ठीक-ठीक समझा और कबीर के भीतर से ही एक नये कबीर की खोज की। कहें कि उन्होंने कबीर का अपना एक नया पाठ निर्मित किया।’

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खुशियों की सौदागिरी

लेकिन अचानक की मेरी मसखरी मुझे भारी पड़ी। मेधा ज्यादा गुस्से या ज्यादा तिलमिलाहट से हुमस कर रो पड़ी। मैं अकबकाया सा उसे मनाने बढ़ा तो उसने झटक दिया। मैंने दुबारा सॉरी कहा और कबर्ड से अपना वॉलेट निकाल उसकी तरफ डालते हुए कहा–आज से इसे तुम्हीं रखो–तुम इसकी मालकिन–खुश? ‘वह रोते-रोते वॉलेट फेंक कर चीखी–‘मुझे खाली वॉलेट्स रखने का शौक नहीं’– –‘अब तुम्हारे लिए चोरी के नोटों से भरा बटुआ तो मैं लाने से रहा’– ‘तुम्हारा मतलब, निलय बख्शी और विशाल घाटे चोर हैं...एक तुम्हीं जमाने में।’

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