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‘देखिए सिकंदर, आप ठीक साढ़े ग्यारह बजे पहुँच जाइएगा। यह समझ लीजिए कि यहाँ भारत या पाकिस्तान की तरह नहीं चलता है। अगर एक वक्त दिया जाता है तो पाबंदगी से उस पर अमल भी किया जाता है। आप मेरी बात समझ रहे हैं न?’ वे अपनी बात सिकंदर तक पहुँचाने का पूरा प्रयास कर रही थीं। सिकंदर भी थोड़ी झिझक और थोड़ी इज्जत की शर्म लिए खड़े थे, ‘बाजी अब आप ही देखिए न, साउथहॉल से फिंचले सेंट्रल तक आना कोई आसान बात तो नहीं न जी। रास्ते में नॉर्थ सर्कुलर पर भी गाड़ी चलानी पड़ती है। नॉर्थ सर्कुलर के ट्रैफिक से तो आप वाकिफ हैं न बाजी?’

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जीवनमूल्य और विश्वसंस्कृति की कहानियाँ

कथाकार तेजेंद्र शर्मा ने अपनी कहानियों से समकालीन विमर्शों की चर्चा की है, लेकिन उनके केवल नारे नहीं लगाए हैं। बीच-बीच में लेखकीय टिप्पणी और पात्रों की स्थिति द्वारा ही वह अपनी बात कह जाते हैं।

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कोख का किराया

आज मनप्रीत, हारी हुई सी, घर के एक अँधेरे कोने में अकेली बैठी है। वह तो आसानी से हार मानने वालों में से नहीं है। आज तो पूरा कमरा या पूरा घर ही पराजय का पर्याय सा बना हुआ है। सूना, अकेला, सुनसान सा घर! अभी कल तक तो घर में सब कुछ था–खुशी, प्रेम, विश्वास! हत्या हुई है! भावनाओं की हत्या! किंतु मनप्रीत ने कब किसकी भावनाओं का आदर किया है! अपने वर्तमान के लिये वह किसे उत्तरादायी ठहराये? वर्तमान कोई किसी साधु महात्मा द्वारा जादू के बल पर अचानक हवा में से निकाला हुआ फल या प्रसाद तो है नहीं! अतीत की एक-एक ईंट जुड़ती है तब कहीं जा कर बनता है वर्तमान!

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डरे, सहमे, बेजान चेहरे

डूबे हैं गहरी सोच में भयभीत माँ, परेशान पिता अपने ही बच्चों में देखते हैं अपने ही संस्कारों की चिता।

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बेतरतीब जिंदगी

कुछ डरते डरते वह बॉम्बे ब्रैसरी रेस्टोरेंट में घुसा। वैसे राजीव प्रसाद उसके साथ थे। वे अपनी मर्सिडीज में बैठा कर उसे अपने साथ ले गए थे। वरना इतने बड़े समारोह में वह आ भी कैसे सकता था। जब राजीव जी ने उससे पूछा था, ‘भाई नरेन जी आजकल नौकरी के क्या हाल चल रहे हैं?’ बस किसी तरह अपनी हिम्मत सँजोते हुए कुछ शब्द उसके मुँह से निकल पाए थे, ‘जी भाई साहब, लड़ाई चल रही है। वैसे रिडंडैन्सी का पत्र तो मिल गया है। यदि अगले सप्ताह तक कोई बात नहीं बनी तो बस नौकरी से बाहर ही समझिए।’

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