ऋतुराज
माना, असंख्य वर्णों नादों गंधों स्पर्शों का समन्वित स्वर व्याप्त है तुम में संपूर्ण सौंदर्य और ऐश्वर्य से परिपूर्ण ऋतुराज हो तुम
माना, असंख्य वर्णों नादों गंधों स्पर्शों का समन्वित स्वर व्याप्त है तुम में संपूर्ण सौंदर्य और ऐश्वर्य से परिपूर्ण ऋतुराज हो तुम
रंजक जनकवि थे। उन्हें जनता के बीच दुबारा कैसे लाया जाय, इसकी फ़िक्र फ़िक्रमंदों को करनी चाहिए। उनकी प्रशंसा के पुल बाँधकर हम वह नहीं कर पाएँगे जो यह कविताएँ चाहती हैं।
भोर हो चुकी थी, मन ही मन ईश्वर का नाम लेती गोदावरी देवी बालकनी में बैठी स्वर्णिम समय का आनंद लेतीं निर्निमेष दृष्टि से सामने निहार रही थी।
‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून’ कभी कहा था रहीम बाबा ने फिर भी पानी को बेपानी किया गया बेहिसाब
रात में दीनानाथ ने अपनी पत्नी से कहा–‘अब हम अपने मकान में रहते हुए पूरे सौ वर्ष जिएँगे।’ उनकी पत्नी ने हँसकर कहा–‘सिर्फ सौ वर्ष ही क्यों?
तुम्हारे डिक्सनरी से हटता क्यों नहीं पर, किंतु, परंतु जैसे कई बड़े-बड़े शब्द। कलम चलाते चलाते अक्सर रुक जाते हैं तुम्हारे हाथ कलम पर उँगलियाँ फिराते गोल-मटोल घुमाने लगते हो तुम्हारे वो मकसदी बात।