बेटियाँ
बेटियाँ हैं तो बीमार माँ के सिरहाने टेबुल पर सज जाती है दतवन, कंघी, दवाई, गमछा और लोटा भर सुसुम पानी।
बेटियाँ हैं तो बीमार माँ के सिरहाने टेबुल पर सज जाती है दतवन, कंघी, दवाई, गमछा और लोटा भर सुसुम पानी।
न आँगन में चहलकदमी करते वीरान पड़ी मरुभूमि में हरियाली, बगिया में कोयल की कूक पक्षियों का चहकना बच्चों की किलकारियाँ, उग आए हैं…
‘मर्द की जबान पकड़ना औरत के वश में कहाँ है बाबा? लेकिन यह बता देते कि कानून लिखा कहाँ जाता है, लिखता कौन है? तो चलकर उसी से फरियाद करते कि हमारे बालकिशन जैसों के जीने-खाने के लिए भी ‘दू अक्षर’ कानून लिख देते।’
जल जंगल जमीन हमारा रक्षक हैं हम जंगल पहाड़ों का हमारे अंदर जंगल उजड़ने का दर्द चीख-चीख कर बयाँ कर रही है तुम्हारी दरिंदगी के किस्से
रात के आवारा मेरी आत्मा के पास भी रुको मुझे दो ऐसी नींद जिस पर एक तिनके का भी दबाव ना होऐसी नींद
प्रेमचंद ने पहली बार लक्ष्य किया कि सांप्रदायिकता किस तरह से संस्कृति का मुखौटा लगाकर सामने आती है। उसे अपने असली स्वरूप में सामने आने में शर्म लगती है इसलिए वह हमेशा संस्कृति की दुहाई देती है।