ऐसा न हुआ तो
ऐसा न हुआ तो कहीं वैसा न हुआ तो सोचा किए हैं हम वही सोचा न हुआ तोकश्ती को सर पे लेके चला जा तो रहा हूँ रस्ते में तेरे घर की जो दरिया न हुआ तो
ऐसा न हुआ तो कहीं वैसा न हुआ तो सोचा किए हैं हम वही सोचा न हुआ तोकश्ती को सर पे लेके चला जा तो रहा हूँ रस्ते में तेरे घर की जो दरिया न हुआ तो
आज तुम्हें होना चाहिए था जेठ की चिलचिलाती रेत पर हम चल लेते, बहुत होता तो
वे मुझसे ये कहते हैं आप तो अब तक बच्चे हैंहम तो बिल्कुल अच्छे हैं आप बताएँ कैसे हैं
विजय कुमार स्वर्णकार एक ऐसे गजलकार हैं जिन्होंने गजल के रूप रंग को बिगाड़े बिना अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों को अपनी गजलों के साथ जोड़ा है।
तुम मुझे एक कप चाय पिलाके मुझसे क्या कहलवाना चाहते हो
सीमाओं में रह कर चल अच्छा पहले अंदर चलसब तन-तनकर चलने लगें इतना भी मत झुककर चल