शैवाल
बड़े शहरों में फुटपाथ से चिपक कर नाली के बगल की झोपड़पट्टी में या किसी ओवर ब्रिज के नीचे शैवाल की तरह जी रहे लोगों को देखकर तुम्हें दुख तो होता है न, कवि?
बड़े शहरों में फुटपाथ से चिपक कर नाली के बगल की झोपड़पट्टी में या किसी ओवर ब्रिज के नीचे शैवाल की तरह जी रहे लोगों को देखकर तुम्हें दुख तो होता है न, कवि?
जब सहेली उससे उसके भविष्य के बारे में पूछती है तो कहती है–‘लाखों की भीड़ में एक और हिराबाई कहीं खो जाएगी।’
धधकती आग पर पाँवों को चलना खूब आता है हमें मुश्किल दिनों से भी निकलना खूब आता है हमारी चुप को कमज़ोरी समझकर भूल मत करना लहू को सूर्ख लावे में बदलना खूब आता है
मैं जब खामोश होता हूँ तो सूरत चीख उठती है बहुत ज्यादा छिपाने से हकीकत चीख उठती हैकई सदियों तलक तो देखती रहती है चुपके से मगर इक रोज़ इनसानों पे कुदरत चीख उठती है
कोई शायर कभी भी बात बचकानी नहीं लिखता कभी शोलों को अपने हाथ से पानी नहीं लिखता जो सूली पर सजाई सेज़ पर सोने को आतुर हो मैं क्या लिखता अगर मीरा को दीवानी नहीं लिखता
हिंदी क्षेत्र के लेखक सामाजिक कुरीतियों से भरसक आँख चुराते हैं। आर्थिक गैर-बराबरी के खिलाफ तो वामपंथी लेखक लिखते-बोलते हैं