ज्यों-ज्यों बू़ड़े ‘अशोक’ संग
अशोक चक्रधर के साथ वफादारी, दोस्ती का एक लंबा दौर है और शायद इसलिए ही वे मेरे लिए बेहतरीन किताब हैं।
अशोक चक्रधर के साथ वफादारी, दोस्ती का एक लंबा दौर है और शायद इसलिए ही वे मेरे लिए बेहतरीन किताब हैं।
उदीयमान कवि आलोक धन्वा का विचार है कि बिहार में दिनकर-दग्ध लोग काफी हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो रेणु से दग्ध हैं।
हूँ उम्मीद की लौ बुझाओगे कैसे उजाला हूँ मुझको मिटाओगे कैसेचलन देश का भ्रष्ट जब हो गया है बता नौजवानों मिटाओगे कैसेअगर आरजू हौसला खो दिया तो
जिंदगी दाँव पर, मैं लगाती रही देश हित में कदम, मैं बढ़ाती रहीगाँव घर शहर शिक्षा से परिपूर्ण हो ज्ञान का दीप मैं तो जलाती रहीहर घड़ी नारियों को दे कर हौसला नारी सम्मान को मैं जगाती रही
वो दिल मुझसे लगाना चाहता है वो अब अपना बनाना चाहता हैनजर भर देख कर जीने लगा वो नजर में अब बसाना चाहता हैमेरी वो माँग हाथों से सजाकर मुझे दुल्हन बनाना चाहता है
कभी तपती हुई सी धूप हूँ मैं नारी हूँ पेय शीतल रूप हूँ मैंकभी हूँ अंत तो आरंभ भी हूँ काली, चंडी, कई स्वरूप हूँ मैंसदा मिहनत कि रोटी तोड़ती हूँ लबालब स्वेद की इक कूप हूँ मैं