घर का रास्ता
मेरी ही मति मारी गई थी, न जाने घर आने की इतनी जल्दी क्या थी? सब कुछ तो था ही।
मेरी ही मति मारी गई थी, न जाने घर आने की इतनी जल्दी क्या थी? सब कुछ तो था ही।
तम के गह्वर में दीये की टिमटिमाती लौ देती है इक उम्मीद जो निज पर को फड़फड़ाते हुए एक ऐसी उड़ान भरती है
ईर्ष्या की आँच में जल रही है संसृति। हाँ इसी तरह जलते-जलते एक दिन पूरी सृष्टि जल जाएगी। सब समाप्त हो जाएगा फिर ना कोई ‘मैं’ और न कोई ‘तुम’
जब-जब मानव परछा जाते हैं संकट के बादलहूंकार करता हुआअपना विकराल रूपदिखलाता– करता प्रहारतो, बारिश की बूँदों साकर्म रत
ट्रैक्टर नामक यांत्रिक वाहन ने खेतों से हल-बैल बेदखल कर ही छोड़ा, ‘हलवाह’ शब्द को अप्रासंगिक बना कर ही छोड़ा।
तांडव कर रही थीं उसके अंतर्मन की परछाइयाँ और शांत मुख मंडल तेज धड़कन गहरी आँखें सपाट ललाट सभी विद्रोह कर रहे थे