मुसाफिर काकी

साधु मुस्कुरा पड़े–‘क्या फर्क है लड़की लड़का में? यह तो तुम्हारी मुसाफिर काकी थी, क्या नारी नहीं थी? तुम सबको सँभालती थी। है ऐसा कोई मर्द तुम्हारे गाँव में!’

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औरत को खुद आगे बढ़ना होगा

‘यह मेरी कहानी है’, यह हिम्मत लोगों में नहीं थी। हमारी महिलाओं में, जिस तरह के समाज में वे पलती हैं, जिस तरह की परवरिश उनकी होती है, उसमें अपनी भावनाओं को छुपाकर रखना उनका स्वभाव बन जाता है।

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खुद से रूठे तो मौसम बदल जाएंगे

खुद से रूठे तो मौसम बदल जाएंगे दास्तां बनके अश्कों में ढल जाएंगेरास्ते जब बनाओगे घर के लिए आँधियों के इरादे भी टल जाएंगे

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आँधियों के आचरण से डर गए

आँधियों के आचरण से डर गए कुछ हरे पत्ते नवागत झर गएजो कि अपने ही गिरे दायित्व सेहम थके हारे उसी के घर गए

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फासले तोड़ डाले गए

फासले तोड़ डाले गएगम नहीं जब संभाले गए बेअसर जिनके साये हुएवे घरों से निकाले गएइन दरख्तों की आगोश मेंजुल्म के नाग पाले गए

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उलगुलान की अनुगूंज में शामिल स्वर

निस्संदेह हरेराम त्रिपाठी चेतन सुकवि हैं। उनके पास भाव हैं, विचार हैं, संपदा है, अभिव्यक्ति की कला है। लेकिन इतने भर से कवि की तमाम मुश्किलों पर विराम नहीं लग जाता।

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