दर्द उधार दो
मुझे थोड़ादर्द उधार दोआँखें जो आज सूख चुकीं उनमें थोड़ी नमी चाहिए आत्मा जो चैन से सो रही उसे तड़प से तृप्त करो मन का सागर शांत पड़ा है
मुझे थोड़ादर्द उधार दोआँखें जो आज सूख चुकीं उनमें थोड़ी नमी चाहिए आत्मा जो चैन से सो रही उसे तड़प से तृप्त करो मन का सागर शांत पड़ा है
कभी भीयाद आ जाती है रात भर जागती लालटेन किसी छुट्टी वाले दिन घर को सलीके से सँवारते वक्त मुलाकात हो जाती है अनायास ही
बरसों बाद आज भी मेरी स्मृति में कौंध उठती हो तुम अपनी हँसीऔर सुवासित हथेलियों के साथ सर्दियों की धूप में
लौट आओ मेरे गुड्डू तुम चले गए कहाँ ! पथरा गई आँखें बाट जोहते-जोहते हुई कौन सी भूल हमसे तुम इस कदर रूठ गए दशरथ के राम भी वनवास गए थे
चिट्ठियाँ आने परहुलस उठता था मनघर का कोना-कोनादौड़-दौड़ कर आ बैठता था पिता के पासदीवारें सुनने लगती थीं कान लगा कर
अंदर जाने का समय हो गया खुल गया, प्रवेश द्वार मैं बैठ गई अपनी सीट पर पर्दा धीरे-धीरे उठ रहा है नाटक का सूत्रधार