एकाकी परदेसी
जा बैठा घर की मुँडेर पर बन पाखी परदेसी।साँझ-सवेरे अम्मा का गीली लकड़ी-सा जलना भरी चिलम की मरी आग-सा बाबूजी का गलनापता नहीं, विधना ने क्या किस्मत टाँकी, परदेसी!
जा बैठा घर की मुँडेर पर बन पाखी परदेसी।साँझ-सवेरे अम्मा का गीली लकड़ी-सा जलना भरी चिलम की मरी आग-सा बाबूजी का गलनापता नहीं, विधना ने क्या किस्मत टाँकी, परदेसी!
हौसलों का, उड़ानों का हुनर का जयगान हो करवटें लेते समय की धार की पहचान होपाखियों की पाँत जँचती रहे कुछ ऐसा करें!
जहाँ न घाटी की प्रतिध्वनियाँ जहाँ न छवरें धूलभरी जहाँ न दूबघिसी पगडंडी जहाँ न पाखी स्वरलहरी
मेरे हमशहर मेरे साथी हम दोनों का शहर विस्थापन है हम दोनों अपने विस्थापन में कितने दूर हैं मैं जब शहर की रातों में आवारगी से घूमती हूँ
धमनियों को लपेटूँगी अँगूठों पर और दिल को पैरों में पहन लूँगी एड़ी में सुनाई देगी धड़कन घुटने से नव्ज़ मिलेगी जब दरवाज़े से दाख़िल होऊँगी
जो भी मज़मून में नहीं बैठता रख दिया जाता है हाशिए पर कि जैसे हाशिए पर रखी है एक कविता एक अकादमिक नोटबुक के पन्ने पर हाशिए पर हैं वो लोग