नेहपाश
एकांत प्रहर में अकसर मेरे भीतर कला खदबदा तीस्वप्न कुलबुलाते नूतन कल्पनाएँ लेकर किसी श्वेत, मूक कागज़ कोकला रेखाओं से भरना
एकांत प्रहर में अकसर मेरे भीतर कला खदबदा तीस्वप्न कुलबुलाते नूतन कल्पनाएँ लेकर किसी श्वेत, मूक कागज़ कोकला रेखाओं से भरना
मुझे थोड़ादर्द उधार दोआँखें जो आज सूख चुकीं उनमें थोड़ी नमी चाहिए आत्मा जो चैन से सो रही उसे तड़प से तृप्त करो मन का सागर शांत पड़ा है
कभी भीयाद आ जाती है रात भर जागती लालटेन किसी छुट्टी वाले दिन घर को सलीके से सँवारते वक्त मुलाकात हो जाती है अनायास ही
बरसों बाद आज भी मेरी स्मृति में कौंध उठती हो तुम अपनी हँसीऔर सुवासित हथेलियों के साथ सर्दियों की धूप में
लौट आओ मेरे गुड्डू तुम चले गए कहाँ ! पथरा गई आँखें बाट जोहते-जोहते हुई कौन सी भूल हमसे तुम इस कदर रूठ गए दशरथ के राम भी वनवास गए थे
चिट्ठियाँ आने परहुलस उठता था मनघर का कोना-कोनादौड़-दौड़ कर आ बैठता था पिता के पासदीवारें सुनने लगती थीं कान लगा कर