एकाकी परदेसी

जा बैठा घर की मुँडेर पर बन पाखी परदेसी।साँझ-सवेरे अम्मा का गीली लकड़ी-सा जलना भरी चिलम की मरी आग-सा बाबूजी का गलनापता नहीं, विधना ने क्या किस्मत टाँकी, परदेसी!

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फ्लेन्यूज़*

मेरे हमशहर मेरे साथी हम दोनों का शहर विस्थापन है हम दोनों अपने विस्थापन में कितने दूर हैं मैं जब शहर की रातों में आवारगी से घूमती हूँ

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गृह प्रवेश

धमनियों को लपेटूँगी अँगूठों पर और दिल को पैरों में पहन लूँगी एड़ी में सुनाई देगी धड़कन घुटने से नव्ज़ मिलेगी जब दरवाज़े से दाख़िल होऊँगी

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हाशिय पर

जो भी मज़मून में नहीं बैठता रख दिया जाता है हाशिए पर कि जैसे हाशिए पर रखी है एक कविता एक अकादमिक नोटबुक के पन्ने पर हाशिए पर हैं वो लोग

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