सलाखें

लाठी गोली अमला फौज सब हो जाते बेकार जब भी शब्द लेते हैं रूप भाषा में ढलते हैं विचारतानाशाहों की उड़ जाती है नींद भोर के अंतिम पहर तक

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मुश्किलों की तोड़कर जंजीर

छेड़िए मत गाँव की दुखती रगों को यूँ उसकी रग-रग में युगों की पीर निकलेगीवह भले धनवान हो जाए मगर उसमें लोभ के प्राचीर की तामीर निकलेगीसच तो ये है जानते हैं जितना हम, उससे देश की हालत कहीं गंभीर निकलेगी

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

बुंदेले हरबोलों ने मरकर भी अमर रानी को कुछ इस तरह याद किया–खुबई लरी मरदानी/अरे भई झाँसी वाली रानी।

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लोग कद से खासे लंबे जा रहे है

जिंदगी में लोग हैं बिल्कुल अकेले फेसबुक पर दोस्त जुड़ते जा रहे हैं आगे बढ़ने की ललक में किसने देखा लोग कितना पीछे छूटे जा रहे हैं

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मैंं जब-तब सोचकर डरता हूँ

उदासी के समंदर में डुबो दे उसका भारीपन अगर रो-रो के थोड़ा खुद को वह हल्का न कर डालेगरीबी खत्म कर डाले जरा-सी देर में खाना करे क्या माँ, अगर उसको तनिक तीखा न कर डालेकमा कर रख लिया है खूब सारा तुमने भी पैसा तुम्हारा भी शिकार इक दिन यही पैसा न कर डाले

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अकेले आदमी की लौ

यह दुनिया शिलाखंड-सी... मगर वह आदमी अकेला तब भी रास्तों पर चल रहा होगा। वह गल रहा होगा हर लौ में सोये वक्त को जगाता हुआ।तुम नहीं कह सकते कि बंदूकों ने आदमी की लौ छीन ली है।

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