कूड़े पर कुछ बीनते बच्चे

उन्हें नहीं मालूम बचपन का प्यार न ही माँ की लोरी। वे नहीं जानते फूल कैसे खिलते हैं? वे फूलों के रंग के बारे में नहीं सोचते न तितली के विषय न शहद के बारे में

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नक्सल आंदोलन की एक असमाप्त कथा

मॉरिशस के प्रेमचंद अभिमन्यु अनत कहते हैं ‘शोषित मानव शोषण का आदी होकर उसे जीवन की स्वाभाविकता मान लेता है और उस लिजलिजेपन को संतोष के साथ जीता रहा है। लेखक उसके कानों में सिर्फ इतना ही कहता है कि जिसे वह भाग्य का लेख समझता है, वह कानून नहीं–उसे तोड़ना है। यह चेतना होती है, इसके बाद उपाय और सक्रियता आदमी की अपनी जिम्मेदारी होती है।’ आलोच्य उपन्यास ‘एक असमाप्त कथा’ की लेखिका रमा सिंह ने इसके तनुश्री, जगमोहन बड़ाईक तथा मास्टर काका ब्रह्मदेव यादव जैसे पात्रों के माध्यम से नक्सल बनने का कारण और मानवता क्षरण को दर्शाने में सफलता पाई है।

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समाज की संवेदनहीनता

साधारणतः आदिवासियों को भारत में जनजातीय रूप में जाना जाता है। आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, बिहार, झारखंड तथा पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक हैं, जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं, जैसे मिजोरम। आदिवासियों का जीवन संपूर्ण रूप से वनों पर निर्भर रहता है। वनों में जीवन-यापन करने के साथ-साथ वे पशुपालन का कार्य भी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करते हैं।

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कसबाई समाज की जीवंत कहानियाँ

‘जसोदा एक्सप्रेस’ सुषमा मुनीन्द्र की कहानियों का संग्रह है, जिसमें जीवन के विविध इंद्रधनुषी रंग हैं, तो भावनाओं की भीनी खुशबू, रिश्तों के खट्टे-मीठे स्वाद और समाज में व्याप्त असामाजिकता की कड़वाहट भी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘जसोदा एक्सप्रेस’ जीवन में व्याप्त बहरंगे भावों की सवारी को लेकर चलती कहानियों का अलबम मानवीय एवं पारिवारिक रिश्तों के बिखरते मोती को एक सूत्र में पिरोने का सुंदर प्रयत्न सुषमा मुनीन्द्र की कहानियों में दीख पड़ता है। वास्तव में सुषमा मुनीन्द्र की कहानियाँ शहरों में नए बसते कसबाई समाज की संवेदना से गहरे जोड़ती हैं।

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समकालीन हिंदी कहानियों में भूमंडलीकरण का प्रभाव

भौतिक सुख की दौड़ में आज की आधुनिक पीढ़ी ने विवाह को एक आड़ा मान लिया है। भूमंडलीकरण के प्रभाव में आई भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भविष्य के प्रति संदेह पैदा हो रहा है। इस संदर्भ में अमित कुमार सिंह का यह कथन स्वीकार योग्य है कि–‘वैश्वीकरण ने प्राचीन एवं परंपरागत भारतीय समाज की बुनियादी आस्था को हिलाकर रख दिया है। भारत में व्यक्ति, परिवार, समाज और संस्कृति के समक्ष पुनर्परिभाषा का संकट उत्पन्न हो गया है। भूमंडलीकरण ने भारत में समाज व संस्कृति के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है। इन परिवर्तनों में कभी भविष्य के खतरे की आहट सुनाई देती है तो कभी इसमें एक नए भविष्य गढ़ने का सुखद अहसास परिलक्षित होता है।’

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लोक संस्कृति के विस्तार की कहानियाँ

उत्तर आधुनिकता और बाजारवाद के इस अधम दौर में ऋता शुक्ल की कहानियाँ ग्रामगंधी संस्कृति के अजेय शिलाखंडों से अठखेलियाँ करती किसी पहाड़ी नदी की स्वाभाविक तरंगों को साकार करती हैं। ग्रामभित्तिक जमीन पर सांस्कृतिक वैभव के साथ नारी विमर्श की अंतरंग छवियाँ उकेरने वाली ऐसी कहानियों की प्रजाति इधर अनुपलब्ध होती जा रही हैं। चित्रा मुद्गल, ऋता शुक्ल, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला जैसी कुछ महिला कहानीकारों के यहाँ यह वैभव अभी भी सुरक्षित है, तभी उनकी कहानियाँ जैसे एक लुप्तप्राय लोक की यात्रा कराती हैं।

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