कविताओं में सामयिक यथार्थ

मानव जीवन की विविध घटनाओं का मार्मिक चित्रण अशोक चक्रधर के साहित्य का आधार है। उनकी अधिकांश कविताओं में मर्मांतक पीड़ा पहुँचाने वाले जीवन-प्रसंगों का वर्णन हुआ है। कहीं वह दहेज से जुड़ी हुई समस्याओं को दृश्यों में रूपायित करते हैं तो कहीं बेरोजगारी के भयानक दृश्यों को दिखाते हैं। सांप्रत समाज में फैली हुई कूटनीतियों, बढ़ती हुई अमानवीयता, पारस्परिक द्वेष आदि की भयावहता से हँसाते-हँसाते परिचित कराते हैं। राजनीति पर लिखी गई उनकी रचनाएँ, उन कविताओं के समानांतर नहीं रखी जा सकती, जो नेताओं को हास्य का विषय बना कर सतही ढंग से लिखी गई हों। नेताओं पर यदि वह व्यंग्य भी कर रहे होते हैं तो उसमें उनकी संविधान की समझ होती है।

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फर्क क्या हम में है

1947...भारत! हाँ, देश अपना आजाद हुआ पर कुछ अपने पीछे छूट गए! मिलकर देश आजाद किया फिर दो हिस्सों में बँट गए न वजह मालूम है न मजबूरी का है पता बस बनाकर धर्म को ढाल देश अपना दो हिस्सों में बँट गया!

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केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रेम

मानव जीवन में ‘प्रेम’ एक अनिवार्य तत्त्व है। वह मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों में से एक है। प्रेम का जीवन में वही स्थान है जो आत्मा का शरीर में। आत्मा बिना शरीर निष्प्राण होता है, प्रेम बिन जीवन। जीवन में प्रेम रूपी रस का संचार न हो तो जीवन में संबंधों की डोर नीरस, सूखी और कमजोर हो अंततः टूट जाती है।

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माँ

नदी में नहाने के क्रम में दस-ग्यारह साल का एक लड़का भूल से अधिक गहराई में चला गया और डूबने लगा। किनारे खड़े लोगों ने शोर मचाया–‘अरे देखो वो लड़का डूब रहा है कोई बचाओ...।’ ‘अरे! हाँ भाई जल्दी कोई उपाय करो वरना डूब जाएगा...।’ दूसरे व्यक्ति ने पहले की बात को कुछ और लोगों तक पहुँचाया। तभी किसी और इधर-उधर देखकर जोर से बोला–‘अरे! अभी तो उसकी माँ यहीं थी, कहाँ गई, बुलाओ उसे...।’

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परवशता के विरुद्ध जिजीविषा के स्वर

भोला पंडित ‘प्रणयी’ के जीवन और उनकी पुस्तकों को देखना उनके जीवन में उतरने जैसा है। उनके साहित्य की पृष्ठभूमि प्रायः उनके जीवन के समानांतर है। इसलिए उसकी सजीवता तो असंदिग्ध है ही, यदि वह अयथार्थ लगे, तब भी यथार्थ है। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, खंडकाव्य और अध्यात्म चिंतन में सृजनरत भोला पंडित ‘प्रणयी’ के लेखन की विशेषता निरंतरता है, यह भी उसी प्रकार है कि व्याघातों में उलझे मनुष्य ने अपने जीवन-अधिकार की कामना नहीं छोड़ी।

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