शिकायत

मुझे शिकायत है स्याही पीली क्यों नहीं होती धरती लाल और सूरज से हरी किरणें क्यों नहीं निकलती पीली स्याही जल्द ही कागज से उड़ जाती और ढेर सारे वाद-विवाद हवा बन कर्पूर हो जाते

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चोर

कुत्ते की सेहत में साहब को कुछ ढीलापन का एहसास हुआ तो मन में पंद्रह वर्षीय नौकर कृष्णा के प्रति संदेह का बीज अंकुरित हो उठा। तत्काल ही कृष्णा को पास बुलाकर उसने डाँटते हुए पूछा–‘क्यों रे कृष्णा, कुछ दिनों से टॉमी कमजोर दिखने लगा है...क्या कारण है?’ स...साब मैं...मैं तो टॉमी की देखभाल खूब मन लगाकर किया करता हूँ...समय पर खाना खिलाता हूँ...नहलाता हूँ, और टहलाने भी ले जाता हूँ...।

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पास तुम्हें पाता हूँ

जब भी बहुत अकेला होता, पास तुम्हें पाता हूँ परेशानियों में रह कर भी हरदम मुस्काता हूँबिन खिड़की, बिन दरवाजे का घर इक, घना अँधेरा, उसके अंदर बंद हुआ मैं–अक्सर सपनाता हूँयक्ष रामगिरी पर मैं शापित, बेवश क्या कर सकता? बहुरें दिन, इस इंतजार में मेघदूत गाता हूँ

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क्या उन्हें बच्चे की याद आती होगी

अमर सिंह जवंदा जब 1977 में पटियाला (पंजाब) के पास के अपने गाँव चंदू माजरा से बर्लिन आए थे तब किसी भी देश में आने के लिए वीजा की जरूरत नहीं होती थी। ऐसा वे कहते हैं। उस समय भारत में जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और जर्मनी के भी राजनैनिक हालात बदल रहे थे। उनके तीन भाई, पत्नी और इकलौता बेटा हरदीप गाँव में ही रह गए। उन्होंने 1986 में बर्लिन के पश्चिमी इलाके में पहला भारतीय रेस्त्राँ खोला। उस रेस्त्राँ का नाम उन्होंने ‘टैगोर रेस्त्राँ’ रखा। तब से लेकर अब तक बर्लिन में सैकड़ों भारतीय रेस्त्राँ खुल गए हैं।

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वह भी बना कबीर

वह भी बना कबीर कि बातें करना उल्टी बानी में, आग लगाना सीखे कोई उससे ठंढे पानी में।मुश्किल नहीं कयास लगाना, आगे क्या कर सकता है, जिसने पी हो घूँट खून की बिल्कुल भरी जवानी मेंबिजली, पानी, सड़क, न्याय की प्रजा भूल जाए बातें, अब तो साले के मुद्दे पर ठनी है राजा-रानी में

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जिंदगी

नगर के चौराहे पर कूड़े-कर्कट की ढेर को कुरेद-कूरेदकर दस-ग्यारह साल की एक लड़की अपने बोरे में प्लास्टिक के बोतल, टीन, शीशा आदि भरती जा रही थी। वह अपने काम में पूरी तरह तल्लीन थी। उसके चेहरे पर उलझे भूरे बालों का गुच्छा लटक रहा था।

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