टूटी कुर्सी
विर्जीनिया वुल्फ ने लिखा था, ‘महिला की पूरी जिंदगी पर एक तलवार लटकी रहती है, जिसके एक ओर होते हैं...रीति रिवाज, मान्यताएँ, परंपराएँ और नियम। जब तक वह उनके बीच जीती रहती है, वहाँ तक सब ठीक होता है, पर तलवार के दूसरी ओर होती है, वह जिंदगी, जिसमें वह सब कुछ मानने से इनकार करती है, किसी नियम को नहीं मानना चाहती, वहीं सब ‘कन्फ्यूजन’ है। उसकी जिंदगी में कोई भी पक्ष सामान्य नहीं होता। इस तलवार की धार पर चल कर पार कर लेना स्त्री के अस्तित्व के लिए जहाँ अच्छा होता है, वहीं कठिन भी होता है।’ पहले विवाह का न होना, फिर हो जाना अगर तलवार की एक धार थी तो इस दूधारी तलवार के दूसरी ओर थी–विवाहित जिंदगी को जीते रहना, हर हालात का सामना करते हुए। वही तो कठिनाई होती है।
गिलहरी के बहाने
गिलहरी दौड़ती है जाना चाहती है रस्ते के उस पार पता नहीं जिंदगी की तरफ या मौत की तरफपर वह दौड़ती है एकदम आ जाती है अचानक सामने मौका भी नहीं देगी बचने बचाने का दब जाती है पहिए के नीचे
हज़ पर माँ
बहुत तमन्ना है माँ की वह जाए हज़ पर पिछले पाँच-छह साल से मन मसोसकर रह जाती याद करती चालीसों दिन
कंधों पर सवार प्रेत
बिना संयोग के कोई कहानी नहीं बनती, क्योंकि जिंदगी में इत्तिफाकन बहुत कुछ होता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। जिस रात मिंदर गीतिका के घर से निकली तब उसका मिजाज उखड़ा हुआ था–इन बड़े लोगों का भी कोई भरोसा नहीं...एक पल में मोम, दूसरे में पत्थर! मैंने ऐसा क्या कहा, अफसोस ही जताया कि घर टूट गया...वह मुझे ही सुनाने लगी कि तेरा कंथ तो प्रेत बनकर तेरे कंधों पर सवार है, उतार फेंक! अरे! वाह! जनम-जनम का रिश्ता कोई काट के फेंकता है! अपने मजाजी रब को कोई प्रेत कहता है? मत मारी गई है भैंण जी की! सच्च कहते हैं–ज्यादा पढ़ाई-लिखाई मगज में चढ़ जाती है। उसने अपने सिर झटक कर खुद को समझाया–छोट नी मिंदर! जग स्यापा, ते रब राखा!
काव्य शिशु
एक बच्चा घुटनों के बल चलता खड़ा होने की कोशिश में बार-बार गिरता बार-बार उठता लोग तालियाँ बजाते हैं उसे उँगली पकड़ चलना सिखाते हैं कुछ लोग देने को अच्छे संस्कार उसे ‘बालोहं जगदानंद...’ रटाते हैं।
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