जैनेंद्र–जिनको मैं जान सका

मैंने प्रेमचंद को पढ़ा परंतु जैनेंद्र को मुझे समझना पड़ा। ‘त्यागपत्र’ मेरे लिए गीता रहस्य बन गया। इस गुत्थी को जितना सुलझाना चाहा, मैं उतना ही उलझता गया। भगवती प्रसाद वाजपेयी हमारे यहाँ आए तो मैंने उनसे ‘त्यागपत्र’ के बारे में चर्चा की। वह आदत के अनुसार कुछ देर तक सोचते रहे। फिर वह बोले, “जैनेंद्र विचारक हैं, दार्शनिक बनते हैं। इसकी छाप उसके साहित्य पर है इसलिए वहाँ भी उसका पाठक उलझ जाता है।” परंतु वह ‘त्यागपत्र’ पर कुछ नहीं कह सके।

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सत्यनारायण शर्मा : स्मृति एक असंभव संभव की

सत्यनारायण शर्मा राँची के ही हैं। वह पश्चिम जर्मनी में प्रोफेसर हैं। इन दोनों ही सूचनाओं का मुझ पर जादू जैसा प्रभाव पड़ा। उस समय तक मुझे केवल इतना ही पता था कि राँची में एक लेखक हैं, जिनका नाम राधाकृष्ण है, जिनकी कहानी ‘वरदान का फेर’ हम छात्रों को उस समय पढ़ाई भी जाती थी। राधाकृष्ण ‘घोष बोस बनर्जी चटर्जी’ के नाम से भी लिखा करते थे।

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पूर्वोत्तर भारत : भाषा, साहित्य और हिंदी

पूर्वोत्तर भारत में तिब्बती-चीनी परिवार, आग्नेय परिवार और भारतीय आर्यभाषा परिवार–इन तीन भाषा-परिवारों की सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं। इनमें, संख्यात्मक दृष्टि से तिब्बती-चीनी भाषा-परिवार के तिब्बती-बर्मी उपपरिवार की भाषाओं का आधिक्य है। मात्र आधुनिक साहित्यिक भावबोध के विकास की दृष्टि से इनके तीन वर्ग किये जा सकते हैं–विकसित भाषाएँ (मणिपुर, बोड़ो), विकासशील भाषाएँ (गारो, त्रिपुरी, कार्बी, न्यीसी, आदी, लुशेइ, आओ, अंगामी, लोथा, सेमा) और अविकसित (अथवा अन्य) भाषाएँ। तीसरे वर्ग की भाषाओं की संख्या अधिक है।

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ममता की डोर

स्त्री अपने पति का प्रतिकार कर रही थी, वह सहमी-सी अपने पति के पीछे-पीछे अपने घर की तरफ खिंची चली जा रही थी...जाने ममता की कैसी डोर थी यह!

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उतारन

घर से सोचकर गया था कि आज जो भी मुर्दा...घाट पर आएगा...उसके तन पर कंबल तो जरूर होगा...जिससे तुम्हारी ठंढ दूर हो जाएगी। पर जरा भाग्य तो देखो अम्मा...मुर्दे का उतारन भी नसीब नहीं!’

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माफ कीजिएगा!

शहर के मशहूर बिजनेसमैन श्री बिसारिया जी के यहाँ से आज उनका निमंत्रण था। मैं समझ बैठा था कि वे यहीं रहते हैं। खैर, माफ कीजिएगा...कृपया टिकट लौटा दें। समय कम है।

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