मेरे अंदर गाँव बसता है
Unidentified village in India - DPLA - 8c9672bf53e9511aa9dd943d4075c3f6.jpg- Wikimedia Commons

मेरे अंदर गाँव बसता है

अँग्रेजी के विरोध का कारण है। अँग्रेजी अच्छी आनी है तो मातृभाषा के माध्यम से ही आ सकती है। मैं केवल भावुकतावश नहीं कह रहा हूँ। भाषा-विज्ञान विषय भी मेरा था। इसका मूल सिद्धांत यही है कि आप मातृभाषा में ही अच्छा सोच सकते हैं। सृष्टि का आकलन दुनिया का हर देश इसे मानता है

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साहित्य केवल बुद्धि से नहीं रचा जाता

कविताएँ लिखनी शुरू की, तो अपना उपनाम रखा ‘घायल’। वर्षों तक ‘घायल’ ही रहा, अमरेंद्र कुमार ‘घायल’।

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बड़ा फर्क है प्रेम करने और निभाने में

निभाने और मन से अपनी इच्छा के अनुसार प्रेम करने में फर्क होता है, जो दूसरों को दिखता नहीं।

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मीडिया सिर्फ राजनीतिक दलों का पैरोकार नहीं

एक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य मिलता है जो समाचार को महत्त्वपूर्ण भी बनाता है, और अर्थवान भी। मैं संवेदनशील पत्रकारिता का पक्षधर हूँ और मेरे भीतर का कवि मुझे इस संवेदनशीलता से जोड़ता है।

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औरत को खुद आगे बढ़ना होगा

‘यह मेरी कहानी है’, यह हिम्मत लोगों में नहीं थी। हमारी महिलाओं में, जिस तरह के समाज में वे पलती हैं, जिस तरह की परवरिश उनकी होती है, उसमें अपनी भावनाओं को छुपाकर रखना उनका स्वभाव बन जाता है।

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स्त्री का अपना स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा बंधन है

पद्मश्री उषाकिरण खान का लंबे समय तक बिहार के साहित्यिक क्षितिज पर स्त्री रचनाकार के तौर पर एकाधिपत्य रहा है। उनकी पहली कहानी का प्रकाशन सन् 1978 में हुआ। तब से अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें आठ कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास हैं। मिथिला की धरती इनकी कहानियों का प्राण-तत्त्व है। मिथिला के संस्कार से इनका व्यक्तित्व अभिसिंचित रहा है। उषा जी की कहानियाँ अपनी सहजता और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती हैं। आज के स्त्री विमर्श के ढाँचे में उनकी कहानियाँ भले ही फिट न बैठती हों पर अपने इसी भिन्न तेवर के कारण उनकी कहानियाँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं। उषाकिरण खान की रचनाएँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं इस रूप में कि यहाँ स्त्री, स्त्री के रूप में नहीं, व्यक्ति के रूप में उपस्थित है। उनकी रचनाओं को स्त्री विमर्श के सीमित खाँचे में नहीं रखा जा सकता, पर वे स्त्री हैं और इसलिए उनकी रचनाओं की मुख्य पात्र के रूप में स्त्री आती रही है। यहाँ जो स्त्री है वह आँसू बहाती या नारे लगाती स्त्री नहीं है, पर आप उसे नकार नहीं सकते। वह वहाँ है अपने होने के एहसास से भरी-पूरी, अपनी अस्मिता के प्रति सजग पर हवा-पानी की तरह अवश्यंभावी और स्वाभाविक।

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