हिंदी में अच्छे नाटकों की कमी नहीं

डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने ‘नाटक’ के शास्त्र-व्यवहार को समझने-समझाने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, और इस संदर्भ की अनेक पुस्तकों से साहित्य जगत को समृद्ध किया। वे इतने सहज और सरल थे कि उनसे बातचीत करने के प्रस्ताव पर उनकी ओर से ‘नहीं’ का कोई प्रश्न ही नहीं था। उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों एक शाम मैं उनके आवास पर पहुँच ही गया। देखा, अपने कंप्यूटर पर बैठे कुछ लिख रहे हैं। उस समय नाटक की भाषा पर कुछ लिख रहे थे। मैंने तत्काल प्रश्न किया, ‘सामने कोई लिखित सामग्री नहीं है, आप विचारों को सीधे टाइप कर लेते हैं?’ उनका उत्तर था, ‘आदत हो गई है। 1954 में जब मैं रेडियो में था, तभी से टाइपराइटर पर सीधे लिख रहा हूँ–नाटक, आलोचना, सब कुछ, केवल कविता को छोड़कर। स्क्रिप्ट-राइटिंग में इतना समय नहीं था कि रफ लिखूँ, फिर फेयर करूँ। सो, एक ही बार में फेयर लिखने की आदत हो गई। टाइपराइटर के अक्षर घिस गए, तो अब कंप्यूटर पर लिखने लगा हूँ।

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रमणिका गुप्ता से अंतरंग बातचीत

काव्य मंच और दलित साहित्य की बातें आईं तो इन्होंने टिप्पणी की–‘आज काव्य मंच दिशाहीन हो अपने उत्तरदायित्वबोध से अलग है।

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मैं कहानी लेखन में बौद्धिकता का पक्षधर नहीं हूँ–तेजेंद्र शर्मा

सृजन कभी सीखा नहीं जा सकता। उसे केवल माँझा जा सकता है। सृजन की आवाज अंतर्मन से ही उठती है–एक विचार के तौर पर। इसलिए मैं सृजन के लिये विचार को महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, विचारधारा को नहीं। राजनीतिक विचारधारा के दबाव में पैंफलेट तो लिखा जा सकता है साहित्य नहीं। जब जब हमारी कलम आम आदमी के कष्ट और दुःख के लिये उठेगी वो स्वयं ही बेहतरीन साहित्य की रचना करेगी।

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मेरे सृजन का एकमात्र सरोकार है मनुष्य (उपन्यासकार राजेंद्रमोहन भटनागर से बातचीत)

देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं तथा राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च मीरा पुरस्कार व विशिष्ट साहित्यकार सम्मान से समादृत कथाशिल्पी डॉ. राजेंद्रमोहन भटनागर की कृतियों में प्राणवाही जीवंतता के पीछे उनके वैज्ञानिक विश्लेषण, यायावरी, अनुसंधान और मन की सूक्ष्म तरंगों से तादात्म्यीकरण का मनोवैज्ञानिक प्रभामंडल है।

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