भारतीय समाज के जाति-रंग

जाति को अच्छा बुरा कहना किसी को नहीं भाता। इसे व्यक्तिगत मान लिया जाता है। लेकिन एक जाति के अधिसंख्य लोगों का स्वभाव व व्यवहार दूसरी जाति के प्रति एक जैसा हो तो वह जातिगत क्यों नहीं माना जाए? बहन माया, माया की मजूरी और सियाराम जाट का बेटा चमारिन माया की मजूरी और सियाराम जाट का बेटा चमार।

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बहुजन का सर्वनाम

यदि हम बुद्ध के दर्शन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उसमें वर्तमान परिस्थितियों से पैदा होने वाली समस्याओं का हल ढूँढ़ते हैं तो बहुजन की बात और अधिक स्पष्ट होकर सामने आती है। मिसाल के तौर पर बुद्ध ने एक हिंसक आक्रांता अँगुलीमाल को भी दीक्षा दी थी।

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‘अक्करमाशी’ प्रसंग अर्थात हणमंता राव लिंबाले

दलित साहित्य में द्विज जारकर्म की व्यवस्था के किसी भी तरह के लेखन के लिए कोई स्थान नहीं।

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द्विज जार परंपरा या नव मनुवादी सिद्धांत

अगस्त-सितंबर 2014 के ‘नई धारा’ अंक में कैलाश दहिया का लेख ‘द्विज-जार’ परंपरा का कच्चा चिट्ठा ‘अक्करमाशी’ लेख पढ़ने में आया। इस लेख में यह पूरी कोशिश की गई है कि किसी भी स्थिति में ‘अक्करमाशी’ दलित रचना नहीं है। प्रकारांतर से शरण कुमार लिंबाले भी दलित नहीं हैं–इसे भी सिद्ध किया जाए।

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दलित आत्मकथाओं से डरे लोग

हिंदी साहित्य में जब से दलितों के दुख-दर्द सामने आए हैं, साहित्य को नई ऊर्जा मिली है। साथ ही मिले हैं वीरभारत तलवार और सुधीश पचैरी जैसे सहृदय आलोचक जिन्होंने अपने ढंग से दलितों की पीड़ा और विमर्श को सराहा है। इस प्रक्रिया में नामवर सिंह का मुखौटा भी गिरा है और इन्हीं के शिष्य पुरुषोत्तम अग्रवाल के किंवदंती और प्रक्षिप्त लेखन का तमाशा साहित्य जगत ने देखा है। दलितों ने अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से अपने दुख-दर्द बताए हैं।

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