ये न पूछो कि कौन सी दिल्ली

दिल है, दरिया है और प्यासे भी मीर ओ ग़ालिब की शायरी दिल्लीयूँ तो आए गए कई ज़ालिम बारहा लुट के फिर बसी दिल्ली

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शिकवे शिकायतों व शरारत का दौर था

दो चूड़ियों के बोझ से आ जाती थी लचक नाज़ुक कलाइयों की नज़ाकत का दौर थाबेख़ौफ़ आसमान में उड़ते थे साथ-साथ रस्मों से बार-बार बग़ावत का दौर था

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उनको मेरा हबीब कहते हैं

इतनी नफ़रत को पाल कर दिल में आप ख़ुद को अदीब कहते हैंजिनकी आँखों का मर गया पानी हम उन्हें बदनसीब कहते हैं

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कंवल उस झील के सारे उदास रहते हैं

नदी की तेज़ रवानी में बह गए कुछ लोग जो रह गए हैं किनारे उदास रहते हैंहमारी ही तर्ह उन्हें इंतज़ार है तेरा अब आ भी जा कि सितारे उदास रहते हैंघरों में आग लगा कर जो मुस्कुराते थे

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किरदार इस जहान में

मेहनतकशों का दर्द वो समझेंगे क्या भला ढूँढ़े से जिनके हाथ में छाला नहीं मिलाइनसान भी मिले मुझे हैवान भी मगर गोरा नहीं मिला कहीं काला नहीं मिला

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हमें पता है हम अपनी कमी समझते हैं

हमारी प्यास को दरिया कहाँ समझता है हमारी प्यास को बस प्यासे ही समझते हैं हमारे हक़ में ज़बाँ अपनी खोलता कैसे हम उसका दर्द

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