ताख पर सिद्धांत
ताख पर सिद्धांत धन की चाह भारी हो गया है आज आँगन भी जुआरीरोज़ ही गँदला रहा है आँख का जल स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव सेढल रहा जो वक्त उसकी चाल का स्वर
ताख पर सिद्धांत धन की चाह भारी हो गया है आज आँगन भी जुआरीरोज़ ही गँदला रहा है आँख का जल स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव सेढल रहा जो वक्त उसकी चाल का स्वर
अम्मा जिसके स्वप्न गाँव में बार-बार अँखुआते थे कल शहर हवा के साथ तैरकर आने को थे कितने बेकलउन्हीं स्वप्न-खँडहर पर अम्मा दीपक आज जला आती है।
हौसलों का, उड़ानों का हुनर का जयगान हो करवटें लेते समय की धार की पहचान होपाखियों की पाँत जँचती रहे कुछ ऐसा करें!
जा बैठा घर की मुँडेर पर बन पाखी परदेसी।साँझ-सवेरे अम्मा का गीली लकड़ी-सा जलना भरी चिलम की मरी आग-सा बाबूजी का गलनापता नहीं, विधना ने क्या किस्मत टाँकी, परदेसी!
जीवन की गति है नदिया का बस बहते जाना लोक के लिए खा मौसमी थपेड़े, मुसकानातृषित धरा की तृप्ति के लिए मंदिर फुहार बनो।
जहाँ न घाटी की प्रतिध्वनियाँ जहाँ न छवरें धूलभरी जहाँ न दूबघिसी पगडंडी जहाँ न पाखी स्वरलहरी