प्राण, तुम्हारे मधुर बोल ही इन गीतों में फूट रहे हैं!
प्राण, तुम्हारे मधुर बोल ही इन गीतों में फूट रहे हैं!
प्राण, तुम्हारे मधुर बोल ही इन गीतों में फूट रहे हैं!
तेरे मन की पीर ओसकण समझेंगे, न कि तारे!
चरखे गा दे, जी के गान!*एक डोरा सा उठवा जी परदोनों कहते बल दे, बल दे,
इस गीत को मैं अपनी 1949 की कृतियों में सबसे प्यारी मानता हूँ। यह ‘मिलन यामिनी’ में संग्रहीत है यह सर्वप्रथम ‘आजकल’ दिल्ली के मई 1949 के अंक में प्रकाशित हुई थी।