जैसी करनी, वैसी भरनी

जीवन भर दिन एक सरीखे कहो कहाँ होते फसल काटते वैसी जैसी खेतों में बोते फसल नहीं उत्तम उपजी तुम रोग रहे लाला

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पंछी को दाना-पानी दे

निर्धनता का मंजर देखा सब दिन झेली लाचारी बेचा कभी नहीं अपने को बने पिता कब व्यापारी किंतु सुयश के सघन वृक्ष पर ऊँचे चढ़ते रहे पिता

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कागा उचर रहा है

मोबाइल के भी इस युग में कागा का इंगित पोर-पोर में खुशियों को कर देता है अंकित दर्द भरे दिल को कोई सहलाने वाला है

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सत्ता की यह सनक

निरपराध से लड़वाते हैं निरपराध मरते सत्ता तो बस हुकुम चलाती कहाँ सब्र बरते कहने को हो हुक्मरान ने शत्रु पछाड़े हैं

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ताख पर सिद्धांत

ताख पर सिद्धांत धन की चाह भारी हो गया है आज आँगन भी जुआरीरोज़ ही गँदला रहा है आँख का जल स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव सेढल रहा जो वक्त उसकी चाल का स्वर

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