जैसी करनी, वैसी भरनी
जीवन भर दिन एक सरीखे कहो कहाँ होते फसल काटते वैसी जैसी खेतों में बोते फसल नहीं उत्तम उपजी तुम रोग रहे लाला
जीवन भर दिन एक सरीखे कहो कहाँ होते फसल काटते वैसी जैसी खेतों में बोते फसल नहीं उत्तम उपजी तुम रोग रहे लाला
निर्धनता का मंजर देखा सब दिन झेली लाचारी बेचा कभी नहीं अपने को बने पिता कब व्यापारी किंतु सुयश के सघन वृक्ष पर ऊँचे चढ़ते रहे पिता
मोबाइल के भी इस युग में कागा का इंगित पोर-पोर में खुशियों को कर देता है अंकित दर्द भरे दिल को कोई सहलाने वाला है
कदम-कदम कर धरती नापे पर्वत मापे, खाई मापे पता नहीं कब शाम हो गई और हुई कब सुबह
निरपराध से लड़वाते हैं निरपराध मरते सत्ता तो बस हुकुम चलाती कहाँ सब्र बरते कहने को हो हुक्मरान ने शत्रु पछाड़े हैं
ताख पर सिद्धांत धन की चाह भारी हो गया है आज आँगन भी जुआरीरोज़ ही गँदला रहा है आँख का जल स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव सेढल रहा जो वक्त उसकी चाल का स्वर