अम्मा

अम्मा जिसके स्वप्न गाँव में बार-बार अँखुआते थे कल शहर हवा के साथ तैरकर आने को थे कितने बेकलउन्हीं स्वप्न-खँडहर पर अम्मा दीपक आज जला आती है।

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एकाकी परदेसी

जा बैठा घर की मुँडेर पर बन पाखी परदेसी।साँझ-सवेरे अम्मा का गीली लकड़ी-सा जलना भरी चिलम की मरी आग-सा बाबूजी का गलनापता नहीं, विधना ने क्या किस्मत टाँकी, परदेसी!

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चार दिन की जिदंगी

काँच की मानिंद टूटे छन्न से सब ख्वाब। इस तरह उपभोग तक होते रहे नीलाम। पी गए हमको समझ दो इंच की बीड़ी।बढ़ गए कुछ लोग कंधों को बना सीढ़ी।

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