क्यों नदियाँ चुप हैं?
ज्यों-ज्यों शहर अमीर हो रहे नदियाँ हुई गरीब जाएँ कहाँ मछलियाँ प्यासी फेंके जाल नसीब? जब गंगाजल गटर ढो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
ज्यों-ज्यों शहर अमीर हो रहे नदियाँ हुई गरीब जाएँ कहाँ मछलियाँ प्यासी फेंके जाल नसीब? जब गंगाजल गटर ढो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
धान रोपते हाथअन्न के लिए तरसते हैं,पानी में दिनभरखट कर भी प्यासे रहते हैं।
शहरी राधा को गाँवों की मुरली नहीं सुहाती है, पीतांबर की जगह ‘जींस’ की चंचल चाल लुभाती है। सुविधा की शैम्पन में खोकर, रस की गागर भूल गए।
फिर-फिर जेठ तपेगा आँगन, हरियल पेड़ लगाये रखना, संबंधों के हरसिंगार की शीतल छाँव बचाये रखना।
नैन फागुनी रूप चंदनी, तन सबने देखा पर मीरा की कवितावज्ञला मन किसने देखा?कानों में चंदा का कुंडल पहन चांदनी साड़ी,
बहुत घुटन है, बंद घरों में, खुली हवा तो आने दो, संशय की खिड़कियाँ खोल दो, किरनों को मुस्काने दो!